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Showing posts from January, 2018

शिक्षा की खस्ता हालत

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हाल ही में शिक्षा पर आयी ASER की रिपोर्ट भारतीय शिक्षा की खामियों पर चर्चा करने के लिए मज़बूर करती दिखती है। यह रिपोर्ट प्राथमिक शिक्षा पर प्रकाश डालती है और इसके प्रकाशित आंकड़े भारत के भविष्य के लिए शुभ संकेतों की परिभाषा की परिधि से बाहर है।   हालांकि ये रिपोर्ट प्राथमिक शिक्षा पर आधारित है लेकिन शिक्षा किसी भी स्तर पर सही नही कही जा सकती है और उसी का परिणाम है कि आज का ग्रेजुएट अपनी शिक्षा के स्तर के रोजगार की आवश्यक शर्तों पर खरा नही उतर पा रहा है। हालत इस हद तक खराब है कि पीएचडी धारक एक क्लर्क की जॉब पाने के लिए संघर्षरत है।  इसका एक कारण यह हो सकता है कि भारतीय शिक्षा व्यवाहारिक न होकर सैद्धांतिक ज्यादा है जोकि रोजगार की शर्तों को पूरा नही कर पाती। इसलिए भारत मे एक कहावत प्रचलित है कि'ये सब किताबी बातें है'। इन्ही किताबी बातों के कारण एक शिक्षित युवा रोजगार के लिए भटकता है।19वी सदी का पाठ्यक्रम 21वी सदी में पढ़ाकर 21वी सदी की मांगों को पूरा की चाहत रखना एक तरह रेगिस्तान में धान उगाने के विचार की तरह कही जा सकती है।  इसके अतिरिक्त भारतीय शिक्षा 'how to think' ...

तलाक को नकारात्मक रूप में लेना जरूरी नही.....

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             आज किसी परिचित ने 'तलाक'विषय पर लिखने के लिए कहा। उनका मानना है कि तलाक़ को हमेशा बुरा ही नही माना जा सकता व इसको एक अच्छाई के रूप में भी मान्यता दी जा सकती है। यह मुद्दा इसलिये भी महत्वपूर्ण हो जाता है कि हाल ही में मुस्लिम धर्म में प्रचलित तीन तलाक़ को सुप्रीम कोर्ट द्वारा गैरकानूनी घोषित किया गया था और सरकार से तीन तलाक़ पर कानून बनने के लिए कहा था लेकिन राज्यसभा के  शीतकालीन सत्र में कुछ विरोधाभास के कारण यह बिल पास नही हो सका। अतः मुस्लिम महिलाओं को तीन तलाक से निजात दिलाने वाले इस कानून का बजट सत्र तक इंतजार करना होगा।   अब बात आती है हिंदू धर्म की महिलाओं की, हालांकि हिंदु महिलाएं अगर किसी मनमुटाव या अन्य कारण से वे अपने पति के साथ नही रहना चाहती हैं तो कहने के लिए उनको तलाक़ के माध्यम से शादी-विच्छेद का अधिकार मिला हुआ है लेकिन वास्तविकता इसके उलट है क्योंकि जिस धर्म मे शादी सात जन्मों का साथ निभाने का प्रतीक मानी जाती है, उस समाज मे तलाक को सकारात्मक कदम माना ही नही जा सकता। भारतीय समाज मे महिलाओं को दोयम दर्जे दिए जाने ...

कुछ धार्मिक मान्यताओं का खंडन

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             ज्यादातर धर्मों की यह मान्यता है कि आत्मा अनश्वर है और वह नश्वर शरीर के माध्यम से अपनी उपस्थिति दर्ज कराए रहती है। इसी मान्यता के कारण पुनर्जन्म की अवधारणा अस्तित्व में आयी।पुनर्जन्म कर्मों के सिचिंत फलों के आधार पर तय होता है,ऐसा धार्मिक ग्रंथों द्वारा बताया जाता है।मूर्तिपूजा, अवतारवाद,पुनर्जन्म, सिंचित कर्मों का फल जैसी मान्यताएं मानव के जहन में गहरी जड़ें जमाएं हुए है।                उपरोक्त मान्यताओं पर सवाल उठाने वालों को प्रायः चार्वाकी,लोकायती,व नास्तिक जैसे शब्दों से तिरस्कृत किया जाता है।लेकिन कुछ सवाल ऐसे है जो अनुत्तर ही रह जाते है।प्रायः हिंदू धर्म में विवाह का बंधन सात जन्मों तक माना जाता है लेकिन शायद यह कोई ही जनता होगा कि उसकी वर्तमान शादी पहले जन्म की है या आखिरी जन्म की।कही ऐसा तो नहीं कि सातवां जन्म यही हो और अगला जन्म बिछड़ने का जन्म हो। इसके अतिरिक्त एक सवाल यह उठता है जब हमें ना अगले जन्म की याद है ना पिछले जन्म की तो किस आधार पर यह मान लिया जाये कि पुनर्जन्म की अवधारणा सत...