सेक्स के प्रति मानव इतना आकर्षित क्यों और इसका समाधान क्या?
सेक्स एक ऐसा विषय है जिस पर आकर मनुष्य चुप्पी साध लेता है, इसके बारें में बात करने से बचता है और इसको एक कमरे के अंदर तक ही सीमित रखना चाहता है।आज तक के धर्म और संस्कृतियां सेक्स को जीवन की सफलता और मोक्ष में बाधक मानते आए हैं। हर कोई चाहे वो कोई साधु हो, संन्यासी हो, संत हो, महात्मा हो, सूफी हो या एक साधारण इंसान, सब के सब सेक्स के विरोध में खड़े है लेकिन आश्चर्य है कि आज तक इससे पिछा भी नहीं छुड़ा पाएं हैं। वर्तमान में सेक्स एजुकेशन देने की बात की तो जाती है लेकिन सिर्फ बात ही की जाती है। बायोलॉजी का अध्यापक सेक्स के बारें में बताने से हिचकता है। इन सबका परिणाम निकलके आता है कि सेक्स के बारे में आधा- अधूरा ज्ञान लेकर ही अपने आप को सेक्स का विद्वान घोषित कर देते हैं।
यह बात मेरी समझ के बाहर है कि लोग सेक्स को बुरा क्यों मानते है जबकि यह मनुष्य की प्राथमिक आवश्यकताओं की सूची में अपना स्थान रखता है। यह सर्वविदित है अगर मनुष्य की प्राथमिक आवश्यकताओं की पूर्ति नहीं होती हैं तो वह अपना पूर्ण विकास नहीं कर सकता और अपनी ऊर्जा प्राथमिक जरूरतों में ही ख़र्च करता रहेगा। सेक्स के विरोध के कारण ही इसके प्रति आकर्षण बढ़ता गया है ,उसी का परिणाम है कि अश्लील तस्वीरों और, नग्न फिल्मों का व्यापार बढ़ता चला गया। हम इन तसवीरों और फिल्मों का विरोध तो करते हैं लेकिन यह पता लगाने की कोशिश नहीं करते कि हमें इनकी जरूरत पड़ ही क्यों रही है। क्यों मनुष्य का दिमाग 24 घंटे सेक्स के इर्दगिर्द ही घूम रहा है? क्यों उसके दिमाग में हर समय कामुकता भरी रहती है? जबकि पशुओं में ऐसा नहीं होता।उनका एक समय होता है सेक्स का। लेकिन मनुष्य का कोई समय नहीं है। वह तो सेक्स के लिए किसी भी समय तैयार है।अगर ध्यानपूर्वक अवलोकन करोगे तो पाओगे की विश्व की ज्यादातर परिक्रियाए सेक्स पर ही केंद्रित है। जैसे-लड़का किसी लड़की को आकर्षित करने में मग्न है तो लड़की किसी लड़के को लुभाने के लिए श्रृंगार कर रहीं है, ज्यादातर मूवीज में नायक और नायिका का प्रेम दिखाया जाता है, किसी भी विषय पर शुरू हुई बहस का सेक्स पर खत्म होना, अश्लील जोक्स, वीडियो, फ़ोटो आदि शेयर करना आदि।
यह सब सेक्स को एक बंद कमरे में रखने के परिणाम हैं। यह एक कड़वा सच है कि जिस चीज का जितना विरोध करोगे उसके प्रति उतनी ही लालसा बढ़ती ही जायेगी। यहां एक साधु की कहानी याद आ गयी जो काफी रोचक भी है। वह साधु लोगों को सिनेमा देखने से रोकता और बोलता कि सिनेमा वर्तमान और भविष्य की पीढ़ी को बिगाड़ देगा। बोलता कि सिनेमा मोक्ष की प्राप्ति में बाधक है, ईश्वर का चिंतन-मनन करने में बाधक है। एक दिन वह अपने किसी गूढ़ मित्र के पास बैठा था। साधु अपने मित्र से बोला कि मैं लोगो को सिनेमा से रोकने के लिए नरक का भय भी दिखाता हूं लेकिन लोग सुनने को तैयार नहीं है और सिनेमा जाना नहीं छोड़ते। आखिर ऐसा क्या हैं सिनेमाघर के अन्दर जो लोगों में इसके प्रति ईश्वर से भी ज्यादा प्रीति है और जब भी देखो सिनेमाघरो के बाहर लाइन लगी रहती है। क्या तुम मेरे लिए एक फ़िल्म देखने का इंतजाम कर सकते हो?? उसका मित्र यह सुनकर आश्चर्यचकित कि सबको सिनेमा के प्रति रोकने वाला आज खुद सिनेमा देखने की बात कर रहा है। लेकिन फिर भी उसके मित्र ने उसको सिनेमा दिखाया। यह कहानी यह बताती है कि किसी भी चीज का विरोध उसके प्रति आसक्ति ही बढ़ाता है। सेक्स के प्रति तो हजारों सालों से विरोध चला आ रहा है तो आप अंदाजा लगा सकतें है कि इसके प्रति कितनी आसक्ति होगी लोगों के अंदर।
कोई भी ब्रह्मचर्य व्यक्ति वासना पर विजय नहीं प्राप्त करता बल्कि वासना से भागने का नाम ब्रह्मचर्य है। अगर कोई कहता है कि आज से मैं ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करूँगा तो ये जान लेना चाहिए कि वह व्यक्ति वासनाओ के सागर में खड़ा है। जैसे कोई व्यक्ति कहता है कि मैं आज के बाद शराब नहीं पिऊँगा तो इसका मतलब है उसके मन मे शराब पीने की भावनाएं बलपूर्वक हिलोरें मार रही हैं। अगर किसी व्यक्ति के मन को आउट ऑफ टेन लेवल के स्केल पर मापते है तो 10 में से 9 हिस्से उन भावनाओं को व्यक्त करते है जिनसे भागने के व्यक्ति कोशिश कर रहा है और उसका 10 में से 1 हिस्सा उसकी प्रतिज्ञा को व्यक्त कर रहा है। अब आप इस द्वंदयुद्ध को समझ ही सकते है कि कौन किस पर भारी है।
साधु, सन्यासी भी सेक्स से भागने की कोशिश में लगें हुए है।अब भी ऐसे बहुत से मंदिर है जहाँ महिलाओं का आना प्रतिबंधित है। कुछ साधु ऐसे है जो महिलाओं को अपने शरीर से टच नही होने देते अगर किसी भूलवश ऐसा हो जाता है तो वे अपवित्र हो जाते है लेकिन यह भूलें बैठे है कि उनका जन्म एक महिला से ही हुआ है। ये सेक्स से इतना डर गए है कि इनके सपनों में इंद्र की स्वर्ग सुंदरिया इनकी तपस्या भंग करने आ जाती है। यह वैज्ञानिक रूप से साबित हो चुका है कि रात में आने वाले सपने हमारे द्वारा दिन में सोचे हुए का ही परिणाम है।तो अंदाजा लगाया जा सकता है कि ये साधु सेक्स के प्रति कितने आसक्त है। पुरुषप्रधान समाज होने के कारण इन्होंने ही सब ग्रंथ लिखे है जो कि इनके ही स्वार्थो की पूर्ति करते है।महिलाओं से राय लेने की इन्होंने आवश्यकता नही समझी और सेक्स को नरक के द्वार की सीढ़ी बता दिया।
लेकिन एक बात समझ के परे हो जाती है एक और तो धर्म कहता है कि सेक्स मोक्ष की प्राप्ति में बाधक है, स्त्री को नरक का द्वार बताया गया है लेकिन शादी होने पर स्त्रियों से बोला जाता है कि अब पति ही तुम्हारा परमात्मा है और लड़कों से बोला जाता है कि पत्नी ही अब आपकी अर्धांगिनी है व एक दूसरे के कर्म के तुम अब सहभागीदर हो। अब वे दोनों सेक्स कैसे कर सकते है जो उनको नरक की और लेकर जायेगा। वह पत्नी उस पति को परमात्मा कैसे मान सकती हैं जो उसको रोज पाप में भागीदार बनाता है। इसका परिणाम निकलकर आता है कि पारिवारिक संबंध में खटास आने लगती है।इसके अलावा सेक्स करने के बाद प्रत्येक मनुष्य यही सोचता है कि कहीं वह सेक्स करके ग़लत तो नही कर रहा। यह सब सेक्स को बुरा बताने के कारण पैदा हुए भाव है जोकि वास्तव में बुरा है नहीं।
सेक्स पर पाबंदी के कारण ही लोग इसकी जानकारी इधर-उधर से जुटाते है जोकि आधी-अधूरी ही है, जिसका परिणाम निकलके आता है कि हम गलत आदतों के शिकार हो जाते है।सेक्स की पूर्ति न होने के कारण ही अप्राकृतिक संबंधो से हमारा परिचय होता है। यह देखा गया है कि जितना सभ्य समाज होगा उसमें उतने ही ज्यादा समलैंगिक लोग पाये जाएंगे। असभ्य और आदिवासी समाज इस बात पर आश्चर्य व्यक्त करता है कि समानलिंगी लोग भी संबंध बना सकते है क्या। सभ्य समाज होने का सबसे बड़ा दुख यहीं है कि यह सेक्स पर पाबंदी लगाता जाता है।
अब विचार करते है कि सेक्स के प्रति इस आकर्षण का निदान क्या है। पहला समाधान यह है कि सेक्स को बुरा ना माना जाए। यह प्राकृतिक है जिसमें कुछ भी बुरा नही है। मोक्ष की परिभाषा पर भी हमें पुनर्विचार करने चाहिए क्योंकि मेरे अनुसार मोक्ष प्राप्ति के लिए सेक्स छोड़ना आवश्यक नही। इसके अतिरिक्त इसपर खुलकर बात की जाएं और मौन साधकर ना बैठा जाएं। अभिभावक अपने बच्चों को समय पर सेक्स का ज्ञान करा दें ताकि उनके बच्चे उस ग़लती को करने से बच जाए जो युवावस्था में उन्होंने की थी। साथ ही स्कूलिंग के समय सेक्स एजुकेशन का प्रावधान किया जाए। इसके अतिरिक्त 1-12 उम्र के छोटे बच्चों को घर में बिना कपड़ों के रखने की सलाह भी दी जा सकती है। इससे यह लाभ होगा कि छोटी उम्र में ही वे एक -दूसरे के शरीर-अंगों से परिचित हो जायेंगे और बड़े होने पर एक दुसरे के अंगों से परिचित होने के लिए अश्लील तस्वीरों और अश्लील फिल्मों का सहारा नहीं लेंगे और अपनी ऊर्जा को अन्य कामों मे लगाएंगे। इसके अलावा वयस्क लोग कम कपड़े पहनेंगे तो मनुष्य के मन मे चल रही कामुकता में कमी आएगी। 18वी सदी के आस -पास इंग्लैंड की औरतें लंबे कपड़े पहनती थी जो उनके पूरे शरीर को ढक लेता था और नीचे भी खिचड़ता रहता था। अगर किसी भूलवश किसी औरत के पैर का अंगूठा दिख जाता था तो व्यक्ति उसी को देखकर कामुकता का अनुभव करने लगता और आज स्थिति यह है कि महिलाएं आधी नग्न घूम रही है लेकिन फिर भी कोई समस्या नहीं। ज्यादातर आदिवासी क़बीलों की महिलाएं अपने स्तन नही छिपाती। यहीं कारण है कि कबिलाई समाज सभ्य समाज की इस बात पर हँसता है कि कोई व्यक्ति स्त्री के तन के प्रति भी आकर्षित हो सकता है। अश्लील फिल्में, तन को ढ़कने और सेक्स के विरोध का परिणाम है। इनसे तभी मुक्ति मिलेगी जब सेक्स पर खुलकर विचार करना शुरु कर देंगे।
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