पद्मावती विवाद में संकीर्ण सोच के दर्शन
धार्मिक संकीर्णता की सीढ़ी चढ़ते हुए भारतीय समाज को सहिष्णुता का अर्थ समझाना ठीक ऐसा ही है जैसे रेगिस्तान में खेती करना। भारतीय समाज के अंदर तक जड़ें जमा चुकी धार्मिक संकीर्णता के दर्शन हालिया विवाद,जो आने वाली फिल्म पदमावती से संबंधित है,में हो जाते हैं। किसी भी विषय पर बिना विषय को समझे अपनी प्रतिक्रिया देना अपनी अल्पबुद्धि का परिचय देना है,जोकि वर्तमान में हो रहा है।
इस फ़िल्म को रिलीज़ होने से रोकने से संबंधित याचिका पर उच्चतम न्यायालय ने यह बोलकर विचार नही किया कि यह मामला सेंसर बोर्ड से संबंधित है और सेंसर बोर्ड़ ने इस मामले पर कोई प्रतिक्रिया नही दी है। जिस विषय पर अभी सेंसर बोर्ड तक का रूख स्पष्ट नही हो सका है उस विषय पर किस आधार पर विरोधी तत्त्वों ने यह मान लिया कि यह फ़िल्म जायसी के अमर महाकाव्य 'पद्मावत' की नायिका पद्मावती के साथ न्याय करती नही दिखती।
लेकिन एक बात मेरी समझ से परे है वह यह कि कुछ फिल्मों का विरोध यह बोलकर किया जाता है कि ये फिल्में इतिहास के साथ समुचित न्याय नही करती है लेकिन जब पाठ्यपुस्तकों में हल्दीघाटी का युद्ध अकबर द्वारा नही वरन महाराणा प्रताप द्वारा जीता गया पढ़ाया जाता है, ताजमहल को शिवालय बताया जाता है, और उड़ीसा में हुए पाइका विद्रोह को प्रथम स्वतंत्रता संग्राम बताया जाता है जबकि संशय के बादल 1857 के विद्रोह को प्रथम स्वतंत्रता आंदोलन मानने पर भी मंडराते हैं, तब ये इतिहास के रखवाले किस गुफा में बड़कर बैठ जाते है।
कहने का सार यह है कि संकीर्ण इतिहास को पढ़कर आधुनिक पीढ़ी के साथ न्याय नही किया जा सकता। जो देश अपना इतिहास ही निष्पक्षता के साथ नही पढ़ सकता वह भला क्या धर्मनिरपेक्षता, बंधुत्व व समानता के रास्ते पर अपने पग बढ़ाएगा।
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