अर्द्धशिक्षित लोंगो से समाज को डर

                   किसी ने कहा है कि अनपढ़ होने से बेहतर है   अर्द्धशिक्षित होना। लेकिन मैं इस विचार से असहमति रखता हूँ और एक लोकोक्ति'आधा ज्ञान ,जी का जंजाल' को अपना समर्थन देता हूँ। भारत की स्वतंत्रता के समय साक्षरता दर लगभग 8% थी जो कि आज की तुलना में बहुत कम थी।लेकिन मुझे उस समय की एक बात बहुत पसंद है कि उस समय के ये 8% शिक्षित लोग वास्तव में शिक्षित थे, जो राष्ट्रीय व अन्तराष्ट्रीय मुद्दों पर अपनी राय या मत स्पष्ट रखते थे। अल्पसंख्यक होने के बावजूद इन शिक्षित लोंगो ने अपने ज्ञान के बल पर ब्रिटिश नीतियों की समीक्षा कर  अशिक्षित समाज को उससे रूबरू कराकर एक राष्ट्रीय आंदोलन खड़ा कर दिया।
                  आज शिक्षा दर 74% पर पहुँच गयी है। तुलना करने पर ये आंकड़े अच्छे तो लगते है लेकिन इन आंकड़ों में  अर्द्धशिक्षित लोंगो को भीड़ शामिल है जो न तो अनपढ़ है और न ही पूरी तरह से शिक्षित है। यह आधा ज्ञान इनके लिए तो जंजाल तो है ही बल्कि समाज के लिए भी जंजाल बना हुआ है।फेक न्यूज का बाजार इन्हीं लोंगो के सहारे खड़ा हुआ है, ये ही इस बाजार के प्राणदाता है। इनकी सबसे बड़ी बीमारी है कि ये किसी भी विषय को सत्य मान लेते है और किसी भी विषय को सत्य नही मानते।अर्थात, अगर तुम इन्हें कुछ समझाने का प्रयास करोगे तो ये अपने पूर्वविश्वासो व पूर्वधारणाओं के कारण आपकी राय को ठुकरा देंगे या बड़ी मुश्किल से किसी भी विचार को स्वीकार करेंगे,या फ़िर किसी भी विचार को आसानी से स्वीकार कर लेंगे क्योंकि इन्हें किसी भी विषय की अच्छी समझ नही होती है तो सोचते है कि यह सत्य भी हो सकता है।अतः हम कह सकते है कि इनपर संशयवाद का खासा प्रभाव रहता है। किसी भी विषय को अच्छी तरह से समझे बिना उस पर अपनी राय बना लेना इनकी विशेषताओं में प्रमुख है। जब से सोशल मीडिया ने लोंगो के बीच अपनी पहचान बनाई है तब से इनकी संख्या में खासी वृद्धि हुई है। किसी भी पोस्ट को बिना जांच-परख के शेयर करना इनकी आदतों में शुमार है।

             इन्हीं लोंगो की फौज के कारण भारत में आज तक मध्यकाल की बुराइयों ने अपना बसेरा बना रखा है। एक और तो ये आधुनिकता को भी छूना चाहते है,लेकिन वहीं दूसरी और अपनी रूढ़िवादी परम्पराओ से भी जकड़े रहना चाहते है। यहीं कारण है कि जिन सामाजिक बुराईयों को मध्यकाल के साधु, सूफी, संतो ने व उन्नीसवीं सदी के  सामाजिक सुधारको ने दूर करने का प्रयास किया था ,वो आज तक दूर नही हो पाई हैं।कभी-कभी तो यह सोचकर आश्चर्य होता है कि जिन सामाजिक बुराईयों को हम शताब्दियों से दूर करने का प्रयास कर रहे है,वो आज तक अपनी उपस्थिति क्यो दर्ज करा रही हैं।

   भारत में किसी भी एक ऐसी राजनीतिक पार्टी का जन्म नहीं होना जो अपने मेमोरेंडम में वास्तविक मुद्दों को शामिल करती हो, इस अर्धशिक्षा का ही कमाल है। यही कारण है कि आज भी हम उन्ही मुद्दों पर लड़ रहे है जिनपर मध्यकाल में लड़ रहे थे।

      कहने का सार यह है कि अर्द्धशिक्षित होने से बेहतर अशिक्षित होना है, क्योंकि अशिक्षित कुम्हार की उस मिट्टी के समान है जिसको मनमुताबिक रूप दिया जा सकता है जबकि एक अर्द्धशिक्षित उस धीमे जहर ही तरह है जो समाज को धीरे-धीरे मारता है।

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