शिक्षा पद्धति में खामियां लेकिन दोषारोप युवाओं पर

            दिन-प्रतिदिन बेरोजगारी की समस्या भयंकर रूप लेती जा रही है जिसका कारण हम बढ़ती जनसंख्या व युवाओं में कौशल की कमी को मान लेते है। प्रायः यह मान लिया जाता है कि बढ़ती जनसंख्या ही बेरोजगारी का प्रमुख कारण है और दूसरा, हमारे युवा उस कौशल से वंचित है जिसकी मांग रोजगार क्षेत्र में जरूरी है। बढ़ती जनसंख्या का समाधान तो चीन की "one child policy" की तर्ज पर किया जा सकता है लेकिन युवा उस कौशल से क्यों वंचित है जिसकी रोजगार क्षेत्र में जरूरत है। शिक्षा पद्धति में ऐसी क्या खामियां है कि एक शिक्षित युवा जब रोजगार के क्षेत्र में जाता है तो अपने आप को निस्सहाय खड़ा पाता है? इस पर विचार करने की जरूरत है।

 शिक्षा में पहली खामी तो मुझे शिक्षा के माध्यम में ही नजर आती है। यह सर्वविदित है कि हमारी शिक्षा पद्धति मैकाले की देन है जोकि ब्रिटिश राज की जरूरतों को पूरा करने के लिए लाई गई। शिक्षा का माध्यम अंग्रेजी भाषा को बनाना ब्रिटिश हितों की पूर्ति हेतु ही एक साधन था जिसका मकसद काली चमड़ी के अंग्रेजों को पैदा करना था जो शरीर से भारतीय और दिमाग से अंग्रेज होते और ब्रिटिश शासन में अंग्रेजो का सहयोग करते। उसी नीति का परिणाम वर्तमान के युवा भुगत रहे हैं।वर्तमान में युवाओं के दो दल है। एक दल अंग्रेजी माध्यम से शिक्षा प्राप्त किए हुए है और रोजगार प्राप्ति की लाईन में सबसे आगे खड़ा है। इसको रोजगार इसलिए आसानी से प्राप्त हो रहा है  क्योंकि  ब्रिटेन के उपनिवेश दुनिया भर में फैले थे जिस वजह से वर्तमान में अंग्रेजी भाषा विश्व स्तर पर अपनी पकड़ बनाये हुए है। भारत के प्रसिद्ध विश्वविद्यालय और कॉलेजों में शिक्षा का माध्यम अंग्रेजी ही है। भारत के प्रसिद्ध समाचार पत्र व न्यूज चैनल अंग्रेजी का उपयोग करते है। भारत के प्रसिद्ध विद्वान, न्यायालय और संस्थान अंग्रेजी के ही गुलाम है। शशि थरूर ने अपनी बुक में लिखा भी है कि "भारत में शिक्षा प्रणाली दो तरह की है जिनको शासन करना है वो इंग्लिश मीडियम स्कूल में पढ़ते है और जिनपर शासन किया जाना है वो सरकारी स्कूल में पढ़ते हैं।" अंग्रेजी में ज्ञान प्राप्ति के लिए व्यापक स्रोत व संसाधन उपलब्ध होने के कारण अंग्रेजी माध्यम से शिक्षा प्राप्त युवा को रोजगार प्राप्ति में आसानी होती है।

  युवाओ में दूसरा दल है स्थानीय भाषाओं में शिक्षा प्राप्त करने वालों का। यह भाषा हिंदी, तमिल, तेलुगु, मलयालम, गुजराती, कोई भी हो सकती है जिसकी मान्यता शिक्षा बोर्ड देता हो। ये युवा रोजगार प्राप्ति की लाइन में पीछे खड़े हैं। इसके लिए अनेक कारक जिम्मेवार है। पहला तो यहीं कि इनकी शिक्षा का माध्यम ही इनके रोजगार प्राप्ति के अवसरों को सीमित कर देता है। दूसरा, इनकी पारिवारिक पृष्ठभूमि भी कुछ अच्छी नहीं होती। अशिक्षित और आर्थिक रूप से कमजोर परिवार के कारण ये बच्चें सरकारी स्कूल के विद्यार्थी हैं। और सरकारी स्कूल में कैसी पढ़ाई होती है ये तो आप अच्छी तरह से जानते हो।

 रोजगार प्राप्ति में असफल युवाओ के लिए दूसरा कारक मुझे शिक्षा का स्तर नजर आता है। भारत में प्रत्येक राज्य अपना शिक्षा बोर्ड का गठन करता है, जिनके पाठ्यक्रम का स्तर अलग-अलग होता है। विश्वविद्यालय भी अपने अलग-अलग पाठ्यक्रम रखते है जोकि सही नही है। क्योंकि आगे चलकर जब कमजोर शिक्षा स्तर के बोर्ड से पढा युवा अखिल भारतीय प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी करेगा तो  उसे काफी परेशानियों का सामना करना पड़ेगा।

तीसरा कारक नजर आता है हमारी शिक्षा पद्धति का रोजगार के अनुकूल न होने का। हमारी शिक्षा के पाठ्यक्रम को बाबा आदम के जमाने का बोला जाता है क्योंकि वास्तविक जीवन मे उसका उपयोग कम ही होता है। जिस तरह से भारत विश्व स्तर पर अपनी पहचान बना रहा है और सेवा क्षेत्र में आगे बढ़ रहा है उसके अनुसार हमें अपनी शिक्षा पद्धति पर पुनः विचार कर लेना चाहिए ताकि युवा इस अवसर का लाभ समुचित रूप से उठा पाये और भारत सिर्फ कहने के लिए ही युवाओं का देश न रहे बल्कि वास्तविकता में युवाओ का देश बने।

  अब विचार करते है कि शिक्षा पद्धति में व्याप्त इन खामियों का क्या समाधान निकल सकता है। पहला तो यह कि शिक्षा माध्यम की भाषा एक ही होनी चाहिए जोकि वर्तमान की स्थिति को देखते हुए अंग्रेजी ही सही रहेगी। भारत सेवा क्षेत्र में अपनी जिस तरह से पकड़ बना रहा है उसके लिए अनेक युवाओ की जरुरत पड़ेगी जिनको अंग्रेजी भाषा व कम्प्यूटर ज्ञान हो। अतः शिक्षा पद्धति में अंग्रेजी अपनाकर हम विश्व स्तर के रोजगार से जुड़ सकते है। मातृभाषा प्रेमियों का विरोध 5th standard तक मातृभाषा में शिक्षा दी जायेगी बोलके शांत किया जा सकता है लेकिन 5th standard से आगे की शिक्षा सिर्फ अंग्रेजी माध्यम से ही अनिवार्य होनी चाहिए।

  इसके अतिरिक्त शिक्षा का या तो निजीकरण किया जाए या राष्ट्रीयकरण ही किया जाए क्योंकि शिक्षा संस्थानो में यह विभेद दो अलग -अलग तरह ही फौज खड़ी कर रहा है। एक तरफ जहां दिल्ली के सरकारी स्कूल देश के अन्य निजी स्कूलों को धता बता रहे है, तो वहीं दूसरी और UP के gvt स्कूल सिर्फ मिड डे मील ही बांट रहे हैं। ठीक ऐसी ही असमानता पूरे देश में व्याप्त है। इसके साथ ही पाठ्यक्रम में व्याप्त असमानता को पाटने का प्रयास किया जाए। समाधान के रूप में पूरे देश मे NCERT Books को पाठ्यक्रम के रूप में अनिवार्य किया जा सकता है।

 शिक्षा को रोजगारोन्मुखी बनाकर भी हम शिक्षा पद्धति में व्याप्त ख़ामियों का समाधान तलाश सकते है। यहां गांधी जी का शिक्षा दर्शन हमारे काम आ सकता है। गांधीजी के अनुसार शिक्षा ऐसी हो जो आर्थिक आवश्यकताओं की पूर्ति कर सके बालक आत्मनिर्भर बन सके तथा बेरोजगारी से मुक्त हो।

 अगर हम उपरोक्त समाधानों पर सावधानीपूर्वक विचार करें तो शायद  संभव है कि बेरोजगारी के रूप में खड़ी समस्या का समाधान निकाल पाएं।

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