रिश्ते को ढ़ोने से बेहतर है उसे उतार फैंकना



भारतीय संस्कृति रिश्तों को कुछ ज्यादा ही अहमियत देती है।इसका कारण व प्रभाव सयुंक्त परिवार कहे जा सकते हैं। पति-पत्नी को जीवनभर का साथी कहा जाता है। माता-पिता पर बच्चों के लालन-पालन, शिक्षा आदि का दायित्व डाला जाता है। बदले में बच्चों से यह आशा की जाती है कि वे बुढ़ापे में अपने माता-पिता का सहारा बनेंगे। बहन-भाई अपने सुख- दुख को आपस में बांटकर आपस मे विश्वास की नींव को मजबूत करते हैं। इसके बाद आते है रिश्तेदार,जो हमारी कठिन परिस्थितियों में कंधे से कंधा मिलाकर चलते है।
           रिश्ते एक विश्वास पर टिके होते है। जब तक वह विश्वास कायम है,आपका रिश्ता कायम है। अगर विश्वास में किसी कारणवश कोई कमी आती है तो उसकी पूर्ति करना मुश्किल हो जाता है। और अगर आप अपने रिश्ते के बीच विश्वास को दोबारा से कायम करना चाहते है लेकिन दूसरा सदस्य इसके लिए तैयार नही है तो यकीन मानिए आपको बहुत गिल्टी फील होगा, जो आपको यह ही याद दिलाएगा की मुझे विश्वास नही तोड़ना चाहिए था।
            अब अगर ये रिश्ते अपनी निर्धारित सीमा में रहकर अपना निर्वहन करते है तो कोई समस्या उत्पन्न नही होती।समस्या तब आती है जब ये रिश्ते अपनी सीमा को लांघ देते है और हमारे लिए नासूर बन जाते है। मेरे अनुसार अगर कोई रिश्ता नासूर का रूप ले ले तो उसको अपने से दूर करना ही बेहतर है मेरे लिए भी और उस दूसरे सदस्य के लिए भी।
            भारतीय समाज शादी को सात जन्मों का गठबंधन मानता है। लेकिन हम इसी जन्म को जानते है तो इसी जन्म की बात करेंगे। जरूरी नही कि प्रत्येक नवविवाहित युगल एक दूसरे के विचारों से सहमत ही हो। हो सकता है कि दोनों विपरीत दिशा में सोचते हो। अरेंज मैरिज व्यवस्था इस सम्भावना को और ज्यादा बढ़ा देती है। विचारों व जीवनशैली में भिन्नता ही झगड़े का कारण बनती है जो आगे चलकर सुखी दाम्पत्य जीवन को दुख के सागर के धकेल देता है। अतः पूरे जीवन दुखी रहने से बेहतर है कि तलाक के द्वारा अलग हो जाना और एक अपनी मेल का जीवनसाथी खोजकर अपना जीवन व्यतीत करना।
               इसी तरह अगर किसी माता-पिता की कोई औलाद नालायक निकले तो माँ-बाप  उसके प्रति लालन-पालन व शिक्षा का अपना कर्तव्य समझकर उसकी गलतियों पर पर्दा डालते जाते है और दुखी जीवन व्यतीत करते जाते है। बच्चे के प्रति बाप का मोह कम हो भी सकता है लेकिन माँ का नहीं। क्योंकि माँ ने उसको जन्म दिया है। वह अपने बच्चे की हर गलती माफ करती है। लेकिन मेरे अनुसार एक सीमा से अधिक गलती माफ करना माँ-बाप, स्वयं बच्चे, व इस समाज किसी के भी हित में नही है। अतः अगर बच्चा ज्यादा ही नालायकी करें और सुधारने पर भी नहीं सुधरे तो उसे घरनिकाला देने में देर नही करनी चाहिए। घरनिकाला मिलने पर वह जीवन की कड़वी सच्चाइयों से रूबरू होगा,जो उसे जीना सिखला देंगी। अगर तब भी अक्ल नहीं आई तो जेल उसका बसेरा बनेंगी ।
                  अब बात आती है परिवार के बाकी सदस्यों के बीच रिश्तों की या रिश्तेदारों से रिश्तेदारी निभाने की। प्रायः  इस दुनिया मे  सबसे ज्यादा हम अपने परिवार पर ही विश्वास करते है,जोकि करना भी चाहिए। लेकिन अगर परिवार का कोई सदस्य या रिश्तेदार उस विश्वास का फायदा उठाने का प्रयास करें तो हमे परिवार के सम्मान की परवाह किए बिना अपना खुद का भला-बुरा सोचना चाहिये। यह देखा गया है कि ज्यादार लड़कियों से रेप करने वाले उनके परिचित ही होते है। जिनमें उनके भाई, बाप, कजिन, मामा, फूफा, चाचा कोई भी हो सकता है जिनपर हम सबसे ज्यादा विश्वास करते है। ज्यादातर लड़कियों पर होने वाले व्याभिचार की घटनाएं इसलिए सामने नही आ पाती क्योंकि व्याभिचार करने वाला उनके परिवार का ही सदस्य था। अब अगर ऐसा परिवार हो तो हमे शायद ही ऐसे परिवार की जरुरत होगी।
             अतः रिश्तों को निभायें लेकिन अगर उनके बोझ के नीचे आप दबने लगें तो रिश्तों की परवाह न करते हुए स्वार्थवाद व सुखवाद का मार्ग पकड़ ले। क्योंकि अगर हम है तो सब कुछ है, अगर हम नहीं तो कुछ नहीं।
         
             

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