''बुरी नहीं है वेश्यावृति, अगर जबरन नहीं है तो''
कल मैं सआदत हसन मंटो के बारे में एक किताब पढ़ रहा था। जिसमे उनके लेख व कुछ कहानियां थी। इसी क़िताब में उनके 'इस्मतफरोशी' नामक लेख ने मेरे दिमाग को झकझोरने वाला काम किया। वेश्यावृत्ति के प्रति इस लेख ने मुझे फिर से सोचने के लिए मजबूर कर दिया। जिस तरह से ओशो की किताब ‛संभोग से समाधि की ओर’ ने सेक्स के प्रति मेरी मानसिकता पर मुझे सवाल उठाने के लिए मजबूर कर दिया था, ठीक ऐसे ही इस लेख ने यह काम ‛वेश्यावृत्ति’ को लेकर किया। मेरी सलाह है कि जब भी आपको समय मिले तो कम से कम एक बार इस लेख को अवश्य पढ़ें।
मेरी तरह बहुत से लोग यही मानते होंगे कि वेश्यावृत्ति समाज के ऊपर एक काला धब्बा है जो छुटाए नही छूटता। वेश्याओं व वेश्यावृत्ति पर हम बात ही नहीं करना चाहते हैं। ऐसे बर्ताव करते हैं जैसे इनका कोई वजूद ही नही हैं। लेकिन वजूद तो है भाई। हमेशा से रहा है और हमेशा रहेगा। हमारे बात न करने से यह मुद्दा दब नही जायेगा। मंटो ने अपनी ज्यादतर कहानियों में वेश्याओं के बारे में लिखा। उस सच्चाई को दर्शाया जिस पर हम बात करने से मुह फेर लेते है। जिसको हम बुरा मानते हैं। यहीं कारण है कि समाज की इस काली सच्चाई को आइना दिखाने के कारण उनको जिंदगी भर अदालतों के चक्कर लगाने पड़े। उनकी कहानी के प्रकाशित होती ही उस पर मुकदमा हो जाता। ज्यादतर लोगों ने उन पर यही आरोप लगाया कि वे अश्लीलता परोसने का काम करते है। उन्होंने कहा कि मैं तो सिर्फ समाज को उसी की सच्चाई दिखा रहा हूँ। अगर समाज की सच्चाई नंगी है तो मैं क्या करूँ। मेरा काम उसे कपड़े पहनाना नहीं है।
मंटो का कहना था कि वेश्यावृत्ति कोई क़ानूनविरोधी चीज नहीं है। यह एक ऐसा पेशा है जिसको अपनाने वाली औरतें कुछ सामाजिक जरूरतें पूरा करती हैं। जिस चीज के ग्राहक मौजूद हो और वह मार्किट में नज़र आए तो हमें ताज्जुब नहीं होना चाहिए। हमें उनकी आजीविका के साधन पर कोई ऐतराज नही होना चाहिए। इसलिए कि हर शहर में उनके ग्राहक मौजूद हैं। उनके ग्राहकों की वजह से ही उनका वजूद है।
वेश्या वह औरत है जिसके दरवाज़े हर उस शख्स के लिए खुले हैं जिसकी जेब में उसे एक निश्चित समय तक ख़रीदने के लिए चन्द रुपये रखे है, चाहे वह मोची हो या भंगी, लँगड़ा हो या लूला, खूबसूरत हो या बदसूरत, उसकी जिंदगी का अंदाजा भली प्रकार से लगाया जा सकता है। एक बदसूरत मर्द जिसके मुँह से पायरिया लगे दाँतो की बदबू के भभके निकलते है एक सफ़ाई पसन्द वेश्या के घर आता है। चूंकि वह व्यक्ति वेश्या के शरीर को एक निश्चित समय तक खरीदने के लिए रुपये रखता है, तो वह नफ़रत के बावजूद उस ग्राहक को छोड़ नही सकती। सीने पर पत्थर रखकर उसे उस ग्राहक की बदसूरती और उसके मुँह की बदबू बर्दाश्त करनी ही पड़ती है - क्योंकि वह जानती है कि उसका हर ग्राहक अपोलो नही हो सकता।
हज़रात! यह जिस्मफरोशी ज़रूरी है...आप शहर में खूबसूरत और उम्दा गाड़ियाँ देखते हैं। ये खूबसूरत और उम्दा गाड़ियाँ कूड़ा- करकट उठाने के काम नहीं आ सकती। गंदगी और गलाज़त उठाकर बाहर फेंकने के लिए और गाड़ियाँ मौजूद हैं जिन्हें आप कम देखते हैं और अग़र देखते भी है तो फ़ौरन अपनी नाक पर रुमाल रख लेते हैं। इन गाड़ियों का होना जरूरी है और उन औरतों का वजूद भी जरूरी है जो आपकी गलाज़त उठाती हैं। अगर ये औरतें न होतीं तो हमारे सब गली- कूचे मर्दों की गंदी हरकतों से भरे होते।
वेश्याओं का काम बुरा नहीं होता बल्कि हमारी सोच बुरी होती है। वह निड़र होकर अपना काम करती है। हम ही है जो उसके पास जाते हैं, वह हमकों बुलाने नहीं आती। हमने उसके काम को गन्दा इसलिए माना हुआ है क्योंकि हमने सेक्स को गन्दा माना हुआ है। जबकि सेक्स हमारी प्राथमिक जरूरत है। ठीक वैसे ही जैसे खाना, पीना और सोना। इसकी पूर्ति होना आवश्यक है। जब तक ये जरूरतें पूरा नहीं होती तब तक हम अपनी बाकी जरूरतों पर ध्यान नहीं दे पायेंगे। सेक्स की मांग को ही एक वेश्या पूरा करती है। और यह मांग हमेशा से रही है और हमेशा रहेगी। अग़र मांग उत्पन्न होती है तो कहीं न कहीं से उसकी पूर्ति तो होगी ही।
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