क्रांति की विरासत


कुछ महीनों पहले मैंने इसी ग्रुप में आप लोगों से पूछा था कि क्या कोई ऐसी किताब है जो स्वतंत्र भारत में रहे क्रांतिकारियों की जीवन शैली और उनके जीविकोपार्जन पर प्रकाश डालती हो। अनेक लोगों ने अनेक पुस्तकों के सुझाव दिए। लेकिन ज्यादातर सुझाव उन किताबों के थे जो शहीद क्रांतिकारियों पर लिखी गई थी, और आजादी से पहले के समय पर लिखी गईं थी। मोहित पाटीदार, जिन्होंने क्रांतिकारियों के बारे में सूक्ष्म अध्ययन किया है, द्वारा सुझाई गई यह किताब बिल्कुल उन्ही मुद्दों को उठाती हैं जिन्हे जानने की मुझे इच्छा थी।

भारत के क्रांतिकारी आंदोलन पर कुछ दशकों में अनेक नए अनुसंधान हुए हैं. सुधीर विद्यार्थी ने इस आंदोलन के उन नायकों से जो, अंग्रेज सरकार की जेलों और यंत्रणाओं को झेल कर बाद में स्वतंत्र भारत में जीवित रहे, लंबी-लंबी मुलाकातें कर इतिहास की टूटी कड़ियां जोड़ी है. इन्हीं टूटी कड़ियों को जोड़ने पर यह किताब बनी है।

इस पुस्तक को पढ़ मुझे क्रांतिकारियों के जीवन में आए संघर्ष, गरीबी और कठिनाइयों के बारे में कुछ नया जानने को मिला। किताब के कुछ प्रसंग मैं शेयर कर रहा हूं।

अंडमान से छूटने के बाद शचींद्रनाथ सान्याल की बेरोजगारी के दशा-----
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1920 में सचिंद्र नाथ सान्याल अंडमान जेल से छूटने के बाद बेरोजगारी से इतने तंग थे कि एक दिन क्लांत होकर उनके दिल में ऐसा ख्याल पैदा हुआ कि “यदि मैं औरत होती तो मेरे लिए जीविका उपार्जन का कम से कम एक रास्ता तो खुला रहता ही जैसा कि मैंने कोलकाता की बीसों सड़कों के जंगले पर बैठी हुई औरतों को देखा था। मेरी आंखों में आंसू थे। मैं सोचा करता था आखिर दूसरे देश के क्रांतिकारीगण कैसे निर्वाह करते होंगे। इस बात की खोज में मैंने बहुत सी किताबे पर डाली लेकिन मुझे कुछ ना पता चल सका। सिर्फ एक पुस्तक में क्राप्टकिन साहब ने जो कुछ लिखा है, उससे ऐसा मालूम होता था कि रूस में भी क्रांतिकारियों की वैसी ही दुर्दशा होती थी जैसा कि हमारे देश में होती थी।”

यशपाल का कपटपूर्ण लेखन ----
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यशपाल ने आजाद पर जो लिखा है अत्यंत पक्षपातपूर्ण है, जिसमें उनके क्रांतिकारी नायकत्व को ओछा दिखाने की कोशिशों के साथ उन कुछ लोगों को बचाने की कोशिशें भी दिखाई देती हैं जिन्होंने दल के साथ गद्दारी की। देखा जाए तो विश्वनाथ वैशम्पायन ने यशपाल के सिंहावलोकन और दूसरी जगह पर उनके द्वारा दर्ज कटुतापूर्ण विवरणों का प्रत्युत्तर देने के उद्देश्य से ही आजाद की जीवनी लिखने का काम अपने हाथ में लिया था। भगवती चरण वोहरा की मृत्यु बम परीक्षण के दौरान हुई और मृत्यु के बाद क्रांतिकारियों ने उनका शव गुपचुप तरीके से दफना दिया। दफनाया इसलिए क्योंकि दाह संस्कार करना खतरे से खाली नहीं था और नदी में इतना पानी भी नहीं था कि शव को प्रवाह दिया जाता। लेकिन यशपाल ने अपनी पुस्तक “सिंहावलोकन” में इस घटनाक्रम को बिल्कुल उलट दिया है उन्होंने लिखा है “बड़े-बड़े पत्थर शव की गठरी में डालकर जल में समाधि दे दी गई।” यशपाल ने अपने चेले इंद्रपाल को गद्दारी के आरोप से बचाने के लिए ऐसा लिखा, क्योंकि इंद्रपाल पुलिस का मुखबिर हो गया था और उसकी सहायता से पुलिस ने लाश ढूंढ निकाली और मिट्टी छानकर हड्डियां अदालत ले जाई गई।

बुटकेश्वर दत्त की आजाद भारत में उपेक्षा --
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बटुकेश्वर दत्त की पत्नी कहती है कि “आजादी मिलने के बाद जब उनसे मेरी शादी हुई तो हम लोग इतनी तंगहाली में थे कि वह बराबर कहा करते थे कि इतना कष्ट तो मुझे काला पानी की सजा के वक्त जेल में भी नहीं हुआ। यह कैसी आजादी है समझ में नहीं आता। कम से कम जेल में किसी तरह खाना तो मिल ही जाता था और साथ ही साथ देशभक्तों का स्नेह भी मिलता था, जिसके कारण कष्ट मालूम नहीं होता था परंतु आज तो मैं चारों ओर से उपेक्षित हूं. पटना में प्रतिवर्ष 15 अगस्त को गांधी मैदान में स्वतंत्रता दिवस का आयोजन किया जाता है लेकिन जीवन के अंतिम क्षण तक उन्हें इस बात की पीड़ा ही रही कि कभी स्वतंत्रता पर्व के इस आयोजन में उन्हें बुलाया भी नहीं गया.”

बिस्मिल की मां का साहस------
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अपने शहीद पुत्र के पास खड़े होकर बिस्मिल की मां कहती है “मेरे पास एक बेटा था जिसे मैंने आज देश को दे दिया। अब एक और बेटा है जिसे मैं जयदेव कपूर को सौंपती हूं और उनसे कहती हूं कि इसे भी अपने भाई बिस्मिल की तरह बहादुर और बलिदानी बनाएं।”

भगत सिंह के विचार ---
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सरदार कहा करता था कि किसी सक्रिय क्रांतिकारी की जिंदगी 2 साल से ज्यादा नहीं होती. जो हौसला हो निकाल लेना चाहिए, क्योंकि बिना कुछ किए जेल जाने पर पछतावा होगा, Self-Satisfaction भी नहीं रहेगा और demoralized हो जाओगे।

जब केंद्रीय असेंबली में बम फेंकने भगतसिंह नही बल्कि जयदेव कपूर जाने वाले थे--------
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जयदेव कपूर कहते हैं कि केंद्रीय असेंबली में बम फेंकने मैं ही जाने वाला था. रास्ता देख लिया था वह. गिरफ्तारी के बाद दिए जाने वाला स्टेटमेंट भी तैयार हो चुका था. तभी एकाएक सुखदेव पंजाब से आ गया. भगत सिंह से उसने पूछा कि असेंबली में बम फेंकने का क्या रहा? भगत सिंह ने कहा कि सब ठीक है। जयदेव डेवलपमेंट वॉच कर रहा है. उसने आने जाने का रास्ता बना लिया है. स्टेटमेंट भी लिखा जा चुका है. सुखदेव को जब यह पता लगा कि सरदार इस एक्शन में नहीं जा रहा है तब उसने उससे नाराजगी व्यक्त करते हुए कहा कि तुमसे ज्यादा मेरा कोई प्यारा दोस्त नहीं है लेकिन प्रश्न व्यक्तिगत नहीं है। मैं जानता हूं कि पार्टी के मंतव्य को तुम ही ठीक से अदालत के मंच पर रख सकते हो। क्या तुम डर गए हो? मैं नहीं चाहता हूं कि तुम्हारे बारे में भी वही लिखा जाए जैसा कि भाई परमानंद के लिए जज ने अपने फैसले में लिखा कि “यह व्यक्ति क्रांतिकारी आंदोलन का मस्तिष्क है लेकिन भीतर से कायर और डरपोक है या खुद पीछे रहकर अपने जूनियर को फायरिंग लाइन में भेज देता है।” सरदार को सुखदेव की यह बात चुभ गई। उसने जिद पकड़ ली कि अब तो असेंबली में बम फेंकने मैं ही जाऊंगा। उसने कहा उसे बम फेंकने की अनुमति दी जाए वरना वह पागल हो जाएगा या आत्मघात कर लेगा। वह बोला कि जब मेरा नजदीक का दोस्त यह कह सकता है तो जनता क्या कहेगी। पार्टी को उसे इजाजत देनी पड़ी और सरदार बाजी मार ले गया। जयदेव कपूर एक शेर याद करके कहते हैं -

“मैंने ही बरसों सजाया मयकदा 
मेरी ही किस्मत में पैमाने नही।”

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