क्यों जरूरी है ईश्वर पर आस्था..!



क्या तुम ईश्वर में विश्वास करते हो?


करना पड़ता है।


मतलब?


मतलब ये साहेब कि इस जटिल दुनिया मे जहां चारों और संघर्ष है। हर कोई तुमसे आगे निकलने को तैयार है। हर तरफ आर्थिक और सामाजिक विषमता है। ऐसे में कैसे कोई अपने आप पर विश्वास रख पाएगा। उसे किसी न किसी धर्म की डोर पकड़नी ही पड़ेगी। वरना यह सामाजिक व्यवस्था उथल - पुथल हो जायेगी, चारों और विद्रोह के स्वर गूंजने लगेंगे। एक बच्चा जब जन्म लेता है तो उसे यह चुनने का मौका नहीं मिलता है कि वह किस जाति, धर्म, राज्य, देश, और वर्ण में पैदा होगा; अमीर होगा या गरीब। लेकिन पैदा होते ही इन सब ठप्पों के कारण यह निर्धारित हो जाता है कि वह कैसा जीवन जीएगा। ऐसा क्यों? क्यों सबको समान अवसर और सुविधाएं नही मिलती? यह असमानता ईश्वर ने रची या मनुष्य ने? अगर ईश्वर ने रची तो क्यों? अगर मनुष्य ने रची तो इसे आज तक पाटने का काम क्यों नही किया? मनुष्य बहुत चालाक है। उसने यह सब प्रपंच रचा और इसका दोष ईश्वर पर डाल दिया। ताकि मनुष्य यह सब ईश्वर की इच्छा जान इन सब असमानताओं को झेलता रहे।


एक तरफ एक बालक अमीर घर में पैदा हो सारे सुख सुविधाओं को भोगता है, हर तरह के अवसर उसे सुलभ होते हैं। वहीं दूसरी तरफ, गरीब घर में पैदा हुआ बच्चा उस अमीर के घर में नौकर बन जाता है। साल में एक लाख कमाना उस गरीब के जीवन का उद्देश्य बन जाता है, जबकि अमीर बच्चा एक लाख का फोन यूज करता है, जिसे वह हर महीने बदलता रहता है। दोनों का जीवन इतना अलग क्यों? यह समाज की विफलता नही तो क्या है? क्यों वह बच्चा नौकर बनने को मजबूर है? क्यों कोई ज्यादा खाकर मर रहा है तो कोई भूखे पेट? क्यों किसी के पास हवेली है तो किसी के पास एक झोपड़ी भी नही?


इन विषमताओं पर कोई नही बोलता है। कोई बोलता है तो उसे दबा दिया जाता है। लोग अपनी किस्मत मान सारे दुख झेल रहे हैं। संघर्ष कर रहे हैं। ईश्वर से आस लगा रहे हैं कि एक दिन वे भी रईस बनेंगे। उनका भी दिन आएगा। लेकिन वह दिन शायद ही किसी की जिंदगी में आता है। यह आस अगर इंसान ईश्वर ने नही लगाकर खुद से या समाज से लगाए तो असफल होने पर वह कितना निराशा से भर जाएगा। इसी निराशा से बचने के लिए वह आस्तिक बन जाता है और समाज की रची इस दुर्व्यवस्था पर सवाल उठाने की बजाय ईश्वर को इसका जिम्मेदार मान उसे कोसने लगता है।


इसी आर्थिक और सामाजिक विषमता से निपटने के लिए समाजवाद की अवधारणा आई। जिसे कुछ देशों ने अपनाया भी लेकिन उन देशों में भी समाजवाद विफल रहा। क्यों? जिन लोगों के लिए समाजवाद लाया गया उन्ही का खून सबसे  ज्यादा बहाया गया समाजवाद के नाम पर। कुछ लोगों का मानना है कि सभी बराबर हो ही नही सकते। क्योंकि प्रकृति ने ही हर व्यक्ति को असमान बनाया है। हर व्यक्ति के आंतरिक गुण अलग - अलग होते हैं। किसी को सन्यासी बनने में सुख मिलता है तो किसी को राजा बनने में। कोई नेता बनकर खुश है तो कोई चेला बनकर। कोई अंतर्मुखी है तो कोई बहिर्मुखी। किसी को व्यापार पसंद है तो किसी को नौकरी। किसी को लेखन पसंद है तो किसी को नृत्य करना। क्या हमारे आंतरिक गुण ही आर्थिक और सामाजिक विषमता को प्रोत्साहित करते हैं? अगर नही तो फिर क्या कारण हैं? क्या इन्हे कभी दूर करके समानता स्थापित की जा सकती है?

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