हिंदू धर्म के अलावा बाकी धर्मों के गरीब क्यों अपना धर्म परिवर्तित नही करते हैं?

क्योंकि हिंदू धर्म की जाति व्यवस्था बहुत गहरा असर छोड़ती है।

आज दलितों को आरक्षण मिला हुआ है लेकिन आज भी वे गरीब हैं। उनके पास बहुत ही छोटे घर हैं, खेत नही हैं, ऊंची शिक्षा प्राप्त करने के लिए आर्थिक परिस्थितियां मजबूत नही। इसलिए उन्हें समय से पहले ही शिक्षा छोड़ मजदूरी में जुटना पड़ जाता है। अगर कोई आरक्षण का सहारा लेकर उच्च पद पर पहुंच भी जाता है , तब भी वह अपनी जाति के कारण समाज में नीची निगाह से ही देखा जाता है। उसे उसका उच्च पद सामाजिक प्रतिष्ठा नही दिला पाता है।

और यह सब जाति व्यवस्था के कारण ही हैं जिसके नीचे वे सदियों से दबे हुए हैं। धर्म परिवर्तन उन्हे यह आशा देता है कि शायद उन्हें दूसरे धर्म में यह भेदभाव नहीं झेलना पड़ेगा। लेकिन गरीब किसी भी धर्म का हो या किसी भी अन्य धर्म में परिवर्तित हो जाए , शोषण का शिकार रहेगा ही। वे भूल जाते हैं कि दूसरे धर्म में जाने पर उन्हें उस धर्म के उच्च वर्ग में फिर भी स्थान नही मिलेगा। वे वहां भी दलित ही कहलाए जायेंगे।

अन्य धर्म के लोग इस कारण से धर्म परिवर्तन का शिकार होने से बचे रहते हैं क्योंकि एक तो उनका धर्म कट्टरपन लिए हुए होता है। हिंदू धर्म की तरह उनमें अनेक संप्रदाय नही होते। उनका धर्म लचीला नही होता। “सिर्फ हमारा ही धर्म सही है” यही घुट्टी उन्हे जन्म से ही पिलाई जाती है। दूसरा, उनके धर्म में जाति के आधार पर भेदभाव नहीं झेलना होता। अगर कोई आर्थिक रूप से मजबूत हो जाए तो उसकी सामाजिक प्रतिष्ठा भी बढ़ जाती है। कोई उसे उसकी जाति के कारण लज्जित नही करेगा। 

देखा जाए तो धर्म भरे पेट की बात है। भूखे पेट किसी को धर्म की नही सुझती है। तब किसी तरह से जीना ही धर्म हो जाता है।

मुझे लगता है कि जब तक हिंदू धर्म अपने अनुयायियों के साथ भेदभाव करता है तब तक दलितों को इस धर्म को ही नकार देना चाहिए। किसी भी मंदिर ना जाएं, किसी भी पंडित को अपने किसी भी कार्यक्रम में ना बुलाएं, सारे धार्मिक कर्मकांडों का बहिष्कार कर दिया जाए। अपना सारा ध्यान सिर्फ अपनी आर्थिक उन्नति पर लगाएं ताकि अपनी सामाजिक प्रतिष्ठा स्थापित कर सकें।

ऐसे बताते हैं कि जाति व्यवस्था कर्म के आधार पर लाई गई थी। बाद में यह जन्म पर आधारित हो गई। बाद में यह व्यवस्था इतनी कठोर हो गई कि किसी को भी अपनी जाति से बाहर का पेशा अपनाने की इजाजत नहीं थी। तभी यह कहावत चली कि “चूहे के जाये भट्ट ही खोदेंगे।” लेकिन आज समय बदल गया है। आज के समय में किसी भी जाति का मनुष्य कोई भी पेशा चुन सकता है और चुन रहा है। फिर आज के समय में जाति व्यवस्था की क्या जरूरत? 

अभी भी ब्राह्मणों का धार्मिक कर्मकांडों पर एकाधिकार बचा हुआ है। उनका यह एकाधिकार भी अगर टूट जाए तो जाति व्यवस्था फिर अपना आधार खुद खो देगी। यह एकाधिकार तभी टूटेगा जब धार्मिक कर्मकाण्ड बंद होंगे।

किसी भी मंदिर में पुजारी के रूप में किसी भी जाति के व्यक्ति को चुना जाए। यज्ञ, हवन, शादी - विवाह, मुंडन, मृत्यु, गृहप्रवेश जैसे अवसरों पर होने वाले पाखंड बंद होने चाहिए।


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