मैं चार्वाकी



मैं कई सालों से चार्वाकी हूं। चार्वाक दर्शन या जिसे लोकायत दर्शन भी कहते हैं, का मतलब, वह मत जो इस लोक में विश्वास करता है और स्वर्ग, नरक और मुक्ति की अवधारणा में विश्वास नहीं रखता है।

इनका मानना है कि धर्म नाम की वस्तु को मानना मूर्खता है क्योंकि जब इस संसार के अतिरिक्त कोई अन्य स्वर्ग है ही नहीं तो धर्म के फल को स्वर्ग में भोगने की बात अनर्गल है। पाखंडी धूर्तों के द्वारा कपोल कल्पित स्वर्ग का सुख भोगने के लिए यहां यज्ञ आदि करना धर्म नहीं है, बल्कि अधर्म है। हवन आदि में वस्तुओं का दुरुपयोग तथा व्रत द्वारा व्यर्थ शरीर को कष्ट देना पागलपन है। इसलिए जो कार्य शरीर को सुख पहुंचाए उसी को करना चाहिए। जिससे इंद्रियों को तृप्ति हो, मन आनंद से भर जाए, वही कार्य करना चाहिए और उन्हीं वस्तुओं का सेवन करना चाहिए। जो भी तत्व शरीर, इंद्रियों, मन को आनंद देने में बाधक होते हैं उनका त्याग कर देना ही धर्म है।

इस जन्म से पहले का ना हम जानते हैं और ना ही बाद का तो उनकी चिंता ही क्यों करना। अगर ये होते या महत्वपूर्ण होते तो ईश्वर यह व्यवस्था जरूर करता कि अगले और पिछले जन्म हमे याद रहें। अगर नही याद हैं तो यह मानकर चलिए कि ये हैं ही नही। इनकी चिंता करना ही व्यर्थ है। यह जन्म याद है, उसी को अच्छे से जियों। मरने के बाद स्वर्ग या नरक में मेरा विश्वास नहीं। इसी पृथ्वी पर स्वर्ग और नरक हैं। अगर आप अमीर हैं, स्वस्थ हैं, अच्छे पर्यावरण में सांस ले रहे हैं, आपके पास एक अच्छा परिवार है तो यही स्वर्ग है और अगर आप गरीब हैं, बीमार हैं, आपका झगड़ालू परिवार है, और दुर्गंधयुक्त व अंधकारपूर्ण बस्तियों में रहते हैं तो यही नरक है।

बहुत सी बातें जो चमत्कारपूर्ण लगती थी और जिन्हें हम धर्म से जोड़ते थे, उनकी गुत्थी आज विज्ञान ने सुलझा दी है। लेकिन आज भी बहुत से प्रश्न अनुत्तरित हैं लेकिन इसका मतलब ये नही है कि उनके जवाब खोजे नही जा सकते। हर चमत्कार के पीछे विज्ञान होता है। जिन प्रश्नों के उत्तर आज विज्ञान के पास नही हैं, जरूरी नहीं आगे भी नही होंगे। उनके उत्तर अवश्य खोजें जायेंगे अगर हमारी दृष्टि खोजपूर्ण हो और दिमाग तार्किक हो। जैसे -जैसे विज्ञान तरक्की करता जायेगा और हम अपने दिमाग को समझते जायेंगे वैसे - वैसे धर्म अपनी प्रासंगिकता खोता जायेगा। मेरा मानना है कि जिस दिन हम अपने दिमाग को पूरी तरह से समझ जायेंगे उस दिन हमें अपने हर प्रश्नों के उत्तर मिल जायेंगे। मेरी नजर में दिमाग ही सबसे ज्यादा ताकतवर है।

तब तक अगर किसी व्यक्ति को धर्म मानना ही है तो उसका एकमात्र धर्म सुखप्राप्ति होना चाहिए। केवल सुख को मानव जीवन का परम ध्येय और सुख की इच्छा को मानव के सभी कर्मों की एकमात्र मूल प्रेरणा मानना चाहिए। मनुष्य के लिए सुख व आनंद के अतिरिक्त अन्य कोई वस्तु अपने आप में शुभ है ही नहीं। प्रत्येक परिस्थिति में उसके समस्त कर्म सुख प्राप्ति की स्वाभाविक इच्छा से प्रेरित होना चाहिए। मानव जीवन के लिए केवल सुख या आनंद को ही अधिक महत्व देना चाहिए।

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