कामवेग का शिकार



कहते हैं जब काम सिर पर चढ़ता है तो वहां से बुद्धि का पलायन हो जाता है। उस समय मनुष्य पशुता के स्तर पर आ जाता है। उसका विवेक शून्य हो जाता है। बुद्धिमान व्यक्ति भी लज्जापूर्ण हरकतें करने लगता है। जब वासना का ज्वार उतरता है तब उसे अपनी ही बेवकूफियों पर हंसी आती है। वासना पुरुष के लिए स्त्री को सबसे कामुक और सुंदर बना देती है। उस समय उसे स्त्री के शरीर के इतर कुछ नही सूझता है, उसके स्वेद की गंध भी इत्र को धता बताती मालूम पड़ती है। 

काम का वेग उतरने पर उसे वैराग्य का भाव उत्पन्न होता है। उसे यह सब दलदल मालूम पड़ता है। स्त्री उसे नरक का द्वार दिखने लगती है। लेकिन कुछ घंटों बाद पुरुष इसी द्वार पर फिर याचक बन खड़ा हो जाता है। अच्छे - अच्छे सुरमा जो किसी से पराजित नहीं हुए, काम के आगे परास्त हो जाते हैं। इस पर विजय पाने की चेष्टा भी व्यर्थ है। यह प्रकृति ही है जो काम के माध्यम से जिए जा रही है। जीवन की सृष्टि इसी वासना का फल है। 

जब हम काम की बात करते हैं तो सोचते हैं कि पुरुष में ही काम ज्यादा पाया जाता है और स्त्री उस सिद्ध की तरह दिखाई पड़ती है जिसने काम को जीत लिया है, लेकिन ऐसा नहीं है। हमारी सामाजिक व्यवस्था ही ऐसी बनी हुई है कि स्त्री अपने आप को खुलकर जाहिर नही कर पाती है, पुरुष कर देते हैं। इसलिए पुरुष आक्रामक दिखता है, स्त्री नही लेकिन काम तो हर मनुष्य में समान ही पाया जाता है। स्त्रियों द्वारा काम का दमन ही हिस्टीरिया के रूप में बाहर निकलता है। काम तो अपना रास्ता खोज ही लेता है। वह तो पानी का वह वेग है जिसे कोई बांध नही रोक सकता।

काम पूर्ति अगर ना हो तो मनुष्य लिंग का भेद भी भुला देता है, वह समलैंगिक संबंध बनाने पर उतारू हो जाता है। जेलों में ऐसे संबंध देखने को मिलते हैं। फिर वह पशुओं तक को नहीं छोड़ता है, स्त्री की बदबूदार मृत देह भी उसे आकर्षक लगती है। इसलिए काम पूर्ति नहीं रुकनी चाहिए। जो समाज इस पर जितनी बंदिशे लगाएगा, वह उतना ही रुग्ण होता जायेगा।

- निखिल कुमार


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