पिता के अंदर एक बच्चा



अक्सर हमारे अंदर पिता की छवि सुपरमैन की तरह होती है। हम निश्चित होते हैं कि अगर कुछ समस्या हुई तो पापा संभाल लेंगे और वे संभाल भी लेते हैं। हमारी पीढ़ी में बाप और बेटे के बीच ज्यादातर बातचीत मां के जरिए होती है। अगर कभी आमने - सामने भी बातें हुईं तो वे सामाजिक, राजनीतिक, और धार्मिक विषयों पर ही अटक रह जाती हैं। कभी उनके मनोभावों को जानने का मौका ही नही मिलता। बेटियां ज्यादा नजदीक होती हैं बाप के, बेटों की तुलना में।

हर पिता के अंदर पितृसत्तात्मक लक्षण होते हैं, जिनकी वजह से बच्चों को वह अपने दुश्मन लगते हैं। लेकिन परिवार के प्रति उनका प्रेम प्रथम होता है, सामाजिक नियम द्वितीय। कभी - कभी पिता सुरक्षा देने के भाव में बच्चों की स्वतंत्रता का गला घोट देते हैं। लेकिन यहां उनकी नीति गलत हो सकती है, नियत नही। एक समय ऐसा आयेगा कि स्वतंत्रता तो तुम्हे मिल जायेगी लेकिन तब वह स्वतंत्रता भी खलेगी क्योंकि उस समय तुम्हे कोई टोकने वाला ही नही होगा।

पिता बाहर से कठोर मालूम चलते हैं लेकिन मुश्किल वक्त में उनके अंदर का बच्चा निकल आता है जो कठोर नही, बिल्कुल कोमल है। जीवन में कुछ वक्त ऐसे आते हैं जब पिता को नही पता होता कि आगे क्या निर्णय लेना है, बेबस खड़े हो जाते हैं परिस्थितियों के सामने। सबसे कमजोर वे उन्ही क्षणों में होते हैं। परिवार का साथ और कंधा उन्हे उसी समय सबसे ज्यादा चाहिए होता है। परिवार का साथ उन्हे उस समय सबसे मजबूत बना देता है, फिर वे किसी भी मुसीबत से लड़ने को तैयार हो जाते हैं।

पापा के अंदर भी तो एक छोटा बच्चा बसता है जो प्रेम चाहता है, चाहता है कि कोई उनकी भी सुने, उनका भी ध्यान रखे, उनकी भी जिद्द पूरी करे, उनसे पूछे कि तुम कैसे हो, उनसे कहे कि तुम चिंता मत करना हम हैं तुम्हारे साथ, कभी अपने को अकेले मत समझना।

Comments

Popular posts from this blog

भारतीय पारिवारिक संस्था के गुण व दोष

एक लड़की के लिए इज्जत की परिभाषा

सेक्स के प्रति मानव इतना आकर्षित क्यों और इसका समाधान क्या?