अति प्रेम की भी बुरी।



“कैसी चाहत है हमारी, जिसे चाहते हैं; उसे धीरे-धीरे नष्ट करते हैं।” - रामकुमार तिवारी

कहते हैं अति हर चीज की बुरी होती है। परिजन अति प्रेम में अपने बच्चे का विकास अवरूद्ध कर देते हैं, एक तरफा प्रेमी ना सुनने के बाद तेजाब फेंक लड़की के उसी चेहरे को बिगाड़ देता है जिस पर वह इतना मोहित था, जलकुंभी जिस जल में पनपती है उसी के पोषण तत्वों को खत्म कर खुद का अस्तित्व ही संकट में डाल लेती है।

प्रेम अच्छा है लेकिन अति उसकी भी बुरी है। हम इस विभाजन रेखा को कब लांघ जाते हैं, पता ही नहीं चलता। यह समझ ही नहीं पाते कि कब हम प्रेम करते - करते प्रेम का ही गला घोंटने लगते हैं। प्रेम का अर्थ स्वतंत्रता देना है, बंधन डालना नहीं। प्रेम बांधता नहीं, विकास के मार्ग खोलता है।

प्रेम का अर्थ यह नहीं कि प्रेमी तुम्हारे ही साथ हमेशा समय बिताए, तुम्ही को अपने जीवन का केंद्रबिंदु बना कर रखे। उसके जीवन में परिवार और दोस्त होते हैं, पढ़ना या जॉब करना भी होता हैं। इन सबके लिए भी समय निकलना होता है। इसके अतिरिक्त खुद के लिए भी समय देना होता है। एकांत हर व्यक्ति का मूल अधिकार है। एकांत ही वह समय है वह व्यक्ति खुद से साक्षात्कार करता है।

लेकिन प्रेम में पागल हुए हम लोगों को यह सब याद ही नहीं रहता हैं। हमे लगता है कि अब तो सामने वाला हमी को प्राथमिकता दे, सिर्फ हमी से बातें करें, जब वह एकांत चाहता है तब भी हम उसके एकांत में उसके साथ रहें। परिवार और दोस्तों का नंबर हमारे बाद आए। वे सब प्रेमी के लिए गौण हो जाएं और हम प्राथमिक।

प्रेम की यह अति रिश्ते की नींव को ढीली करने लगती है। यह खुद को भी कष्ट पहुंचाती है और उसको भी जिसे हम प्रेम करते हैं। शायद किसी ने सही कहा है कि ”अगर साथ रहना चाहते हो तो थोड़ा दूर रहना सीखिए।”

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