प्रेम और विवाह -
लोग अक्सर प्रेम की पूर्णता शादी को मानते हैं। अब तक के लिटरेचर और मूवीज ने उनके दिमाग में यह बात घुसा दी है कि प्रेम तभी पूर्ण माना जाएगा जब शादी हो जाए, वरना प्रेम अधूरा है। इसलिए हर प्रेमिका अपने प्रेमी पर शादी का दवाब डालती है। कुछ लड़कियां प्रेम ही नहीं करतीं क्योंकि उन्हें लगता है जिससे प्रेम करेंगे उससे शादी होगी नहीं, क्योंकि घर वाले नहीं मानेंगे, इसलिए सीधा शादी करके पति से ही प्रेम कर लेंगे।
जबकि प्रेम और शादी दोनों अलग अलग हैं। प्रेम में होना ही उसकी पूर्णता है। अगर तुम्हे किसी से प्रेम हो गया है तो प्रेम का होना ही उसकी पूर्णता है। अब उससे शादी हो या न हो, वह तुम्हे वापिस चाहे या न चाहे, इसका तो सवाल ही नहीं उठता। तुमने उसे प्रेम कर लिया, बस यही प्रेम है। इससे आगे की आवश्यकता नहीं।
प्रेम में हम भक्त होते हैं और प्रेमी/प्रेमिका होता/होती है भगवान। वही हमारे लिए सर्वोपरि होता है। जबकि शादी में मामला हो जाता है स्वामी और सेवक का। प्रेमी अगर पति बन जाए तो वह स्वामी बन बैठता है। वह अधिकार देने की बजाय अधिकार जमाने लगता है। स्वतंत्रता देने की बजाय छीनने लगता है। दरअसल बात यह है कि विवाह एक सामाजिक व्यवस्था है और प्रेम है प्राकृतिक व्यवस्था। प्रेम तुम किसी से भी कर सकते हो। उसको बिना बताए भी कर सकते हो। वर्ण, जाति, और सामाजिक सोपानों को धता बता कर किया जाता है प्रेम। प्रेम में पूर्ण आजादी होती है। एक - दूसरे के लिए सम्मान होता है।
जबकि शादी है सामाजिक व्यवस्था। समाज के नियम और बंधन यहां लागू हो जाते हैं। इसलिए शादी होते ही जो प्रेमी स्वतंत्रता की बातें करता था वह पाबंदियां लगाने लगता है, रोक - टोक करने लगता है, अधिकार छीनने लगता है, हुक्म चलाने लगता है। तब प्रेमिका से पत्नी बनी लड़की को आश्चर्य होता है कि मेरी हर बात सुनने वाला यह लड़का इतना कैसे बदल गया। स्त्री के हकों की बातें करने वाला मुझे घूंघट करने को क्यों बोल रहा है? मेरे लिए चांद तोड़कर लाने के वायदे करने वाला मुझसे अपने कच्छे क्यों धुलवा रहा है?
देखा जाए प्रेम विवाहों में विवाह विच्छेद का प्रतिशत ज्यादा पाया जाता है। अरेंज मैरिज में यह प्रतिशत इसलिए भी कम है क्योंकि वहां पारिवारिक और सामाजिक दवाब भी काम करता है। जबकि प्रेम विवाह समाज में परिवार और समाज की भूमिका नगण्य होती है इसलिए वहां यह दवाब काम नहीं करता है। इसलिए जैसे वो अपनी मर्जी से शादी करते हैं वैसे ही खुद की मर्जी से अलग हो जाते हैं।
अब बात आती है कि वे अलग होते ही क्यों हैं? क्या उनका प्रेम काफी नहीं था शादी चलाने के लिए? या प्रेम की भी एक मियाद होती है और उस मियाद के बाद यह खत्म हो जाता है? निदा फ़ाज़ली ने कहा हैं कि “दुनिया जिसे कहते हैं जादू का खिलौना है, मिल जाए तो मिट्टी है खो जाए तो सोना है”। शायद मिलने के बाद सब मिट्टी हो ही जाता है। प्रेमिका दूर है इसलिए प्रिय है। कहते भी हैं “दूर के ढोल सुहावने”, पास आकर ढोल भी ढपरी लगते हैं।
ओशो बताते हैं कि रवींद्रनाथ के एक उपन्यास में एक युवती अपने प्रेमी से कहती है कि मैं विवाह करने को तो राजी हूं लेकिन तुम झील के उस तरफ रहोगे और मैं झील के इस तरफ।
प्रेमी के लिए यह बात समझ के बाहर है। वह कहता है तू पागल हो गई है? प्रेम करने के बाद लोग एक ही घर में रहते हैं। उसने कहा कि प्रेम करने के पहले भला एक घर में रहें, प्रेम करने के बाद एक घर में रहना ठीक नहीं, खतरे से खाली नहीं। एक-दूसरे के आकाश में बाधाएं पड़नी शुरू हो जाती हैं। मैं झील के उस पार, तुम झील के इस पार। यह शर्त है तो विवाह होगा। हां, कभी तुम निमंत्रण भेज देना तो मैं आऊंगी। या मैं निमंत्रण भेजूंगी तो तुम आना। या कभी झील पर नौका-विहार करते अचानक मिलना हो जाएगा। या झील के पास खड़े वृक्षों के पास सुबह के भ्रमण के लिए निकले हुए अचानक हम मिल जाएंगे चौंक कर तो प्रीतिकर होगा। लेकिन गुलामी नहीं होगी। तुम्हारे बिना बुलाए मैं न आऊंगी, मेरे बिना बुलाए तुम न आना। तुम आना चाहो तो ही आना मेरे बुलाने से मत आना। मैं आना चाहूं तो ही आऊंगी, तुम्हारे बुलाने भर से न आऊंगी। इतनी स्वतंत्रता हमारे बीच रहे, तो स्वतंत्रता के इस आकाश में ही प्रेम का फूल खिल सकता है।
इतनी स्वतंत्रता हो तभी प्रेम और विवाह चल सकता है लेकिन हमने तो प्रेम और विवाह की अपनी ही परिभाषाएं गढ़ ली हैं। अपनी अपेक्षाओं का बोझ लाद दिया है अपने पार्टनर्स पर। इसलिए प्रेम विवाह हो या साधारण विवाह, दोनों में बस एक दूसरे को झेल ही रहे हैं। विवाह भी इसलिए कर रहे हैं क्योंकि बाकी सब कर रहे हैं, बच्चे भी इसलिए कर रहे हैं क्योंकि बाकी लोग भी कर रहे हैं। और जब एक - दूसरे को झेलना ही है तो क्या ही फर्क पड़ता है कि किस से विवाह हो रहा है, प्रेमी है या चाहे कोई और।
Comments
Post a Comment
Thank you for comment