ब्रह्मांड में हमारा सूक्ष्म आकार



ब्रह्मांड इतना विस्तृत है कि इसका अनुमान तक नहीं लग सका है अभी तक। फिर भी कहा जाता है कि इसमें अरबों गैलेक्सी हैं, हर गैलेक्सी में अरबों तारे और इतने ही ग्रह हैं। हमारे सौरमंडल में ही आठ ग्रह हैं। उनमें से एक ग्रह पृथ्वी पर हम रहते हैं। इस प्रथ्वी पर करीब 200 देश हैं। इन 200 देश में से एक भारत है। भारत में करीब 140 करोड़ जनसंख्या है, उनमें से हम एक हैं।

पृथ्वी की उम्र करीब 4.5 अरब वर्ष बताई जाती है। पृथ्वी पर अरबों प्रजातियां हैं, उन सब प्रजातियों में से एक मनुष्य है। मनुष्य का विकास करीब 10 से 20 लाख पूर्व हुआ। इन बीस लाख वर्षों में अरबों मनुष्य इस प्रथ्वी पर आए और गए, कितने हमें याद है? हम इस पूरे ब्रह्मांड की धूल के एक कण बराबर भी नहीं। फिर भी हम अपने आप को इतना महत्वपूर्ण माने बैठे हैं, अपने आप से इतनी अपेक्षाएं लगा लेते हैं और उन अपेक्षाओं के पूरी नहीं होने पर दुखी होते रहते हैं। हमारे होने से ब्रह्मांड नहीं, ब्रह्मांड के होने से हम हैं।

जहां आज हम रह रहे हैं या जिस घर में हम रह रहे हैं या जिस खेत को हम जोत रहे हैं, चार पीढ़ी पहले वहां कौन रह रहा था, कौन उस खेत को जोत रहा था, हमें पता नहीं और चार पीढ़ी बाद इस जमीन को कौन उपयोग में ला रहा होगा, हमें नहीं पता। हम फिर भी अपने आप को इस संपत्ति का मालिक समझ बैठे हैं। इसी संपत्ति को प्राप्त करने के लिए हम अपना पूरा जीवन खपा देते हैं, कोई घर पर घर बनाए जा रहा है, कोई जमीन पर जमीन खरीदे जा रहा है। कोई हमारी 1 इंच जमीन कब्जा ले, तो हम मरने और मारने को तैयार हो जाते हैं। 

एक पीढ़ी बाद हमें कोई याद तक नहीं रखेगा, हमारा सिर्फ नाम रहेगा और पांच पीढ़ी बाद नाम भी नही बचेगा। सब मिट जायेगा।

ब्रह्मांड जो अरबो सालों से अस्तित्व में है, उसमें हमारा अस्तित्व करीब 70 सालों के लिए है। इन 70 सालों को हम इतना कॉम्प्लिकेटेड बना लेते हैं कि यह 70 साल भी हमें भारी लगने लगती हैं। लगने लगता है कि कब हमे इस जीवन से छुटकारा मिले। हमने अपने आप को जाति और धर्म के खांचों में बांट लिया है। अमीरी और गरीबी में दुनिया बट गई है। लोग आपस में जाति और धर्म के ऊपर लड़ रहे हैं जबकि दोनों मनुष्य ने खुद बनाए और खुद ही उसे पर लड़ रहे हैं। मां - बाप अपने बच्चों को जाति और धर्म के बाहर शादी तक नहीं करने दे रहे। 

मनुष्य ने अपने ऊपर इतनी बंदिशें लगा ली है कि वह अपना जीवन सहज रूप से नहीं जी सकता। उसने नियम बना रखे हैं कि किसको क्या खाना है, क्या पहनना है, कैसे रहना है, किस धर्म को मानना है, किस जाति को मानना है, कैसे उसे विचार रखने हैं, कहां उसे शादी करनी है, अगर कोई इन सबसे बाहर सोचता है तो उसे दिमागी रूप से विक्षिप्त बता दिया जाता है।

एक पागलपन की दौड़ चल रही है। जन्म लो, पढ़ो, कमाओ, शादी करो, बच्चे करो, और मर जाओ। इससे बाहर मत सोचो जो सोचेगा, उसका जीवन जीना मुश्किल कर दिया जाएगा।


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