व्याभिचार
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हरिशंकर परसाईं एक जगह लिखते हैं कि “कितने लोग हैं जो ‘चरित्रहीन’ होने की इच्छा मन में पाले रहते हैं, मगर हो नहीं सकते और निरे ‘चरित्रवान’ होकर मर जाते हैं. इनकी आत्मा को परलोक में भी चैन नहीं मिलता होगा किसी स्त्री और पुरुष के संबंध में जो बात अखरती है, वह अनैतिकता नहीं है, बल्कि यह है कि हाय उसकी जगह हम नहीं हुए. एक स्त्री के पिता के पास हितकारी लोग जाकर सलाह देते हैं-उस आदमी को घर में मत आने दिया करिए. वह चरित्रहीन है. वे बेचारे वास्तव में शिकायत करते हैं कि पिताजी, आपकी बेटी हमें ‘चरित्रहीन’ होने का चांस नहीं दे रही है. उसे डांटिए न कि हमें भी थोड़ा चरित्रहीन हो लेने दे.”
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ओशो बताते हैं कि “मेरे पास लोग आते हैं। वे कहते हैं कि जिंदगी भर हमने कोई चोरी नहीं की; बेईमानी नहीं कीं-लेकिन कैसा नियम है जगत का कि चोर और बेईमान धनपति हो गये हैं; आनंद लूट रहे हैं; कोई पद पर है; कोई प्रतिष्ठा पर है; कोई सिंहासन पर बैठा हुआ है, और हम ईमानदार रहे और दुख भोग रहे हैं!”
उनको मैं कहता हूं कि तुम सच्चे ईमानदार नहीं हो। नहीं तो ईमानदारी से ज्यादा सुख तुम्हें महल में दिखाई नहीं पड़ सकता था। तुम्हारी ईमानदारी पाखंड है। तुम भी बेईमान हो, लेकिन कमजोर हो। वह बेईमान ताकतवर है। वह साहसी है। वह कर गुजरा, तुम बैठे सोचते रह गये। तुम सिर्फ कायर हो, पुण्यात्मा नहीं हो। तुममें बेईमानी करने की हिम्मत भी नहीं है, लेकिन बेईमानी का फल मिलता है, उसमें रस है। तुम चाहते हो कि बेईमानी न करूं और महल हमें मिल जाये। तब तुम जरा ज्यादा मांग रहे हो। बेईमान बेचारे ने कम से कम बेईमानी तो की; कुछ तो किया; दांव पर तो लगाया ही; झंझट में तो पडा ही; वह जेल में भी हो सकता है। उतनी उसने जोखिम ली।
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