दुख और सुख एक ही हैं।



ज्ञानी व्यक्ति विरोधाभासी होता ही है। उसकी अगली बात पिछली को काटती चलती है। वह समझ जाता है कि विपरीत तो कुछ होता ही नहीं। सब एक ही है, अज्ञान के कारण विपरीत दिखाई देता है। या हम अपनी सीमित बुद्धि के कारण आसानी से समझने के लिए विपरीत रच लेते हैं। जन्म लेते ही मृत्यु तय हो जाती है। अज्ञानी को ये दोनों अलग दिखाई देते हैं, ज्ञानी को एक ही। रात ही आगे जाकर दिन बन जाती है, दिन ही आगे जाकर रात।

 सुख ही आगे जाकर दुख में बदल जाता है, दुख ही आगे जाकर सुख बन जाता है। बन ही जाना है। यही नियति है। अगर सुख की चाहत रखते हो तो दुख को भी झेलना पड़ेगा। देखा जाए तो दुख के कारण ही सुख का अस्तित्व है। अगर ऐसी दुनिया हो जहां कोई दुख नहीं तो वहां सुख का कोई महत्व नहीं। क्योंकि तुलना किससे करोगे? स्वास्थ्य का तभी तक महत्व है जब तक बीमारी है। साधु तभी तक पूजा जाएगा जब तक दुनिया में बुरे लोग हैं।

ज्ञानी वही जो सबको एक समझे। जिसके लिए अच्छे - बुरे का भेद ही मिट जाए। जो भी सामने आए वह उसी को स्वीकार कर ले। जो फांसी के फंदे और माला में अंतर न समझे। मंसूर को जब फांसी दी गई..तो उसने बड़े प्यारे शब्द कहे; - "कि हे मेरे मालिक ! तू मुझे धोखा नहीं दे सकता ! मैं तुझे पहचान गया ! तू फांसी बनकर आया है..!!"

- निखिल कुमार

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