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Showing posts from March, 2025

भारत में पशुपालन कैसा है?

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अक्सर वीगन बनने वाले लोग यूट्यूब पर डेयरी फार्म्स में होने वाले पशुओं पर अत्याचार की विडियोज देख कर वीगन बन जाते हैं। उन्हे आज मैं पशुपालन के दूसरे पक्ष से रूबरू कराना चाहता हूं। डेयरी फार्म्स यूरोपीय देशों में ज्यादा पाए जाते हैं क्योंकि वहां पशुपालन करना उद्योग है ना कि जरूरत। भारत में भी डेयरी फार्म्स मिलते हैं लेकिन इनका योगदान दुग्ध उत्पादन में बहुत कम है। भारत में ज्यादातर पशुपालक छोटे किसान हैं जो किसानी के साथ - साथ कुछ भैंस और गाय पाल लेते हैं। उनका कुछ दूध वे घर में प्रयोग लाते हैं और बाकी को बेचकर घर का खर्चा चलाते हैं। कृषि की उपज से हर महीने इनकम नही होती है इसलिए भैंस के दूध को बेचकर वे अपनी गृहस्थी चलाते हैं। इसलिए भारत में पशुपालन व्यवसाय कम, जरूरत ज्यादा है। इन किसानों के घरों में दुग्ध उत्पादन के लिए पशुओं पर अत्याचार नही होता है। वे इनको पशु मानकर नही अपने घर का सदस्य मानकर पालते हैं। इनके दुख में खुद दुखी होते हैं और अगर बीमारी से किसी पशु की मृत्यु हो जाए तो खुद भी रोते हैं। मरने पर इनका अंतिम संस्कार पूरे आदर के साथ किया जाता है।  दोनों टाइम पशुओं को पानी और ख...

पिता के अंदर एक बच्चा

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अक्सर हमारे अंदर पिता की छवि सुपरमैन की तरह होती है। हम निश्चित होते हैं कि अगर कुछ समस्या हुई तो पापा संभाल लेंगे और वे संभाल भी लेते हैं। हमारी पीढ़ी में बाप और बेटे के बीच ज्यादातर बातचीत मां के जरिए होती है। अगर कभी आमने - सामने भी बातें हुईं तो वे सामाजिक, राजनीतिक, और धार्मिक विषयों पर ही अटक रह जाती हैं। कभी उनके मनोभावों को जानने का मौका ही नही मिलता। बेटियां ज्यादा नजदीक होती हैं बाप के, बेटों की तुलना में। हर पिता के अंदर पितृसत्तात्मक लक्षण होते हैं, जिनकी वजह से बच्चों को वह अपने दुश्मन लगते हैं। लेकिन परिवार के प्रति उनका प्रेम प्रथम होता है, सामाजिक नियम द्वितीय। कभी - कभी पिता सुरक्षा देने के भाव में बच्चों की स्वतंत्रता का गला घोट देते हैं। लेकिन यहां उनकी नीति गलत हो सकती है, नियत नही। एक समय ऐसा आयेगा कि स्वतंत्रता तो तुम्हे मिल जायेगी लेकिन तब वह स्वतंत्रता भी खलेगी क्योंकि उस समय तुम्हे कोई टोकने वाला ही नही होगा। पिता बाहर से कठोर मालूम चलते हैं लेकिन मुश्किल वक्त में उनके अंदर का बच्चा निकल आता है जो कठोर नही, बिल्कुल कोमल है। जीवन में कुछ वक्त ऐसे आते हैं जब पिता...

विचार : सबसे महत्वपूर्ण

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विचारों को मैं सबसे महत्वपूर्ण मानता हूं। हर व्यक्ति इन्हीं के सहारे अपनी पूरी जिंदगी काट देता है। विचारों की सबसे अच्छी और बुरी बात यही है कि इनमें बदलाव कभी भी अपनी इच्छानुसार किया जा सकता है। ये विचार किसी की जिंदगी को आसान और किसी की जिंदगी को मुश्किल बना देते हैं। सब विचारों का ही तो खेल है। एक व्यक्ति जो अपनी जाति को अपनी शान मानता है, अगर उसकी बेटी जाति के बाहर वाले लड़के से शादी करने लगे तो वह उसकी ऑनर किलिंग कर देगा, जबकि जाति नहीं मानने वाला व्यक्ति राजी खुशी अपनी बेटी का ब्याह किसी भी जाति के व्यक्ति से करा देगा। सामंती सोच का व्यक्ति पूरे परिवार पर अपना अधिकार और स्वामित्व जमाता है जबकि लोकतांत्रिक व्यवस्था में विश्वास करने वाला व्यक्ति अपने पूरे परिवार को साथ लेकर चलता है। एक पितृसत्तू के घर में उसकी स्त्री और बच्चे हमेशा दुखी रहेंगे जबकि समानतावादी सोच रखने वाले व्यक्ति के घर में दोनों हमेशा सुखी रहेंगे। एक व्यक्ति विवाह करता है, उसके बाद बच्चे पैदा करता है, फिर उन्हें अपने मन मुताबिक चलाने की कोशिश करता है और जब वह उसके कहे में नहीं चलते तो पूरे जीवन दुखी होता रहता है, ...

ब्रह्मांड में हमारा सूक्ष्म आकार

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ब्रह्मांड इतना विस्तृत है कि इसका अनुमान तक नहीं लग सका है अभी तक। फिर भी कहा जाता है कि इसमें अरबों गैलेक्सी हैं, हर गैलेक्सी में अरबों तारे और इतने ही ग्रह हैं। हमारे सौरमंडल में ही आठ ग्रह हैं। उनमें से एक ग्रह पृथ्वी पर हम रहते हैं। इस प्रथ्वी पर करीब 200 देश हैं। इन 200 देश में से एक भारत है। भारत में करीब 140 करोड़ जनसंख्या है, उनमें से हम एक हैं। पृथ्वी की उम्र करीब 4.5 अरब वर्ष बताई जाती है। पृथ्वी पर अरबों प्रजातियां हैं, उन सब प्रजातियों में से एक मनुष्य है। मनुष्य का विकास करीब 10 से 20 लाख पूर्व हुआ। इन बीस लाख वर्षों में अरबों मनुष्य इस प्रथ्वी पर आए और गए, कितने हमें याद है? हम इस पूरे ब्रह्मांड की धूल के एक कण बराबर भी नहीं। फिर भी हम अपने आप को इतना महत्वपूर्ण माने बैठे हैं, अपने आप से इतनी अपेक्षाएं लगा लेते हैं और उन अपेक्षाओं के पूरी नहीं होने पर दुखी होते रहते हैं। हमारे होने से ब्रह्मांड नहीं, ब्रह्मांड के होने से हम हैं। जहां आज हम रह रहे हैं या जिस घर में हम रह रहे हैं या जिस खेत को हम जोत रहे हैं, चार पीढ़ी पहले वहां कौन रह रहा था, कौन उस खेत को जोत रहा था, हमें...

पहला वेतन

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हर बेरोजगार गाहे-बगाहे अपनी उस फर्स्ट सैलरी के बारे में सोचता है जो उसे नौकरी लगने पर मिलेगी। वह अपनी उस पहली सैलरी से क्या - क्या करेगा, यही विचार उसे आते रहते हैं।  सोचता है उन रुपयों से घर वालों के लिए गिफ्ट और मिठाई खरीदेगा। मां के लिए साड़ी, पापा के लिए कुर्ता, बहन के लिए सूट और भाई के लिए एक सुंदर सी घड़ी। गिफ्ट्स को देखकर उनके चेहरे पर जो खुशी का भाव आएगा वही उसकी उस तपस्या का फल होगा, जिसे वह वर्षों से कर रहा था। कभी सोचता है कि उन रुपयों से सबसे पहले वह अपनी उधारी चुकाएगा और उन लोगों को शुक्रिया कहेगा जिन्होंने उसे उस वक्त मदद की जब वह कुछ नहीं था। सोचता है उन रुपयों से दोस्तों को पार्टी देगा। उन दोस्तों को जो उसका दूसरा परिवार बने, भूख लगने पर खाना खिलाया, रुपए खत्म होने पर रुपए दिए, पढ़ाई में कॉन्सेप्ट्स क्लियर किए , निराशा के क्षणों में आशा बंधाई और जो असफलता के दिनों में साथ रहे। कभी सोचता है कि वह सबसे पहले एक नया मोबाइल लेगा। अब तक राम - नाम पर चल रहे उस मोबाइल को तिलांजलि देगा जिसकी स्क्रीन टूटी हुई है, वॉल्यूम का बटन काम नहीं कर रहा और कैमरा खराब है। सोचता है अपने ...

कामवेग का शिकार

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कहते हैं जब काम सिर पर चढ़ता है तो वहां से बुद्धि का पलायन हो जाता है। उस समय मनुष्य पशुता के स्तर पर आ जाता है। उसका विवेक शून्य हो जाता है। बुद्धिमान व्यक्ति भी लज्जापूर्ण हरकतें करने लगता है। जब वासना का ज्वार उतरता है तब उसे अपनी ही बेवकूफियों पर हंसी आती है। वासना पुरुष के लिए स्त्री को सबसे कामुक और सुंदर बना देती है। उस समय उसे स्त्री के शरीर के इतर कुछ नही सूझता है, उसके स्वेद की गंध भी इत्र को धता बताती मालूम पड़ती है।  काम का वेग उतरने पर उसे वैराग्य का भाव उत्पन्न होता है। उसे यह सब दलदल मालूम पड़ता है। स्त्री उसे नरक का द्वार दिखने लगती है। लेकिन कुछ घंटों बाद पुरुष इसी द्वार पर फिर याचक बन खड़ा हो जाता है। अच्छे - अच्छे सुरमा जो किसी से पराजित नहीं हुए, काम के आगे परास्त हो जाते हैं। इस पर विजय पाने की चेष्टा भी व्यर्थ है। यह प्रकृति ही है जो काम के माध्यम से जिए जा रही है। जीवन की सृष्टि इसी वासना का फल है।  जब हम काम की बात करते हैं तो सोचते हैं कि पुरुष में ही काम ज्यादा पाया जाता है और स्त्री उस सिद्ध की तरह दिखाई पड़ती है जिसने काम को जीत लिया है, लेकिन ऐसा न...

तुम्हारा दोगलापन

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तुम्हारा एनिमल लवर होने का आधार खोखला है। तुम्हारा यह प्रेम सिलेक्टिव है, सिर्फ कुत्ते और बिल्लियों तक ही सीमित है। एक दिन तुम्हे अगर भैंस का गोबर उठाने, दूध दुहने और उसका चारा खेत से लाने में लगा दिया जाए, तो तुम्हारा ये प्रेम रफूचक्कर हो जायेगा। एनिमल तो भैंस भी है। लेकिन उसे पालने वाला तुम्हारी नज़र में गंवार है। देखा जाए तो हम हर जगह सिलेक्टिव हैं। हमें गांव, पहाड़, खेत पसंद आते हैं लेकिन वहां हम बसना नही चाहते। छः महीने में सिर्फ दो - चार दिन के लिए वहां छुट्टी मनाने जाना चाहते हैं। पेड़ों को काट शहर को बंजर बना हम गमले में पौधे लगा कर खुद को प्लांट लवर बोल लेते हैं। लड्डू गोपाल लाकर भक्ति का पाखंड करने लगते हैं। अपने बच्चे तो तुमसे ढंग से पल नही रहे। कुछ दिन ड्रामेबाजी करके लड्डू गोपाल की सेवा भी बच्चों के जिम्मे कर देते हो। बच्चे तुम्हारी मूर्खता का बोझ ढोते हैं। क्या ही भक्ति करोगे तुम अगर तुम्हारा मन छल, पाखंड, मोह, और ईर्ष्या का शिकार है! व्याभिचार करते वक्त लड़की की जाति और सूरत नही देखते, सिर्फ उसके शरीर पर मोहित हो जाते हो। शादी के लिए तुम्हे उसकी सात पुश्तें याद आ जाती है...

स्त्री और पुरुष के प्रेम में अंतर

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प्रत्येक प्रेमी युगल के बीच यही शिकायत रहती है कि मेरा पार्टनर मुझे उतना प्रेम नहीं करता जितना मैं करता/करती हूं। अधिकतर समस्याओं की जड़ यही है कि हम सोच लेते हैं कि सामने वाला उतनी ही गहनता से प्रेम करेगा जितनी गहनता से मैं करता हूं। उसके प्रेम करने का तरीका बिल्कुल ऐसा ही होगा जैसा मेरा है। जबकि हम भूल जाते हैं कि प्रत्येक व्यक्ति अलग है, सबके सोचने का तरीका अलग है, अपनी फिलिंग्स को जाहिर करने का तरीका अलग है,तो प्रेम जाहिर करने का एक सा तरीका कैसे हो सकता है? हो सकता है कि सामने वाला भी तुम्हें तुमसे ज्यादा प्रेम करता हो लेकिन उसका जाहिर करने का तरीका अलग हो। जैसे कोई व्यक्ति दुख में रोने लगता है, तो कोई मौन हो जाता है, कोई चीखता है। दुख को झेलने के सबके अपने अपने तरीके है। ऐसे ही प्रेम करना का सबका अपना तरीका है। सामान्यत: प्रेम विपरीतलिंगी से होता है। दोनों एक दूसरे से भिन्न हैं। स्त्रियां प्रेम अधिक गहनता से कर पाती हैं। वे प्रकृति के अधिक नजदीक हैं। उनमें भावनाओं का आवेश पुरुषों से अधिक होता है। एक छोटी सी बात उन्हे विचलित कर सकती है तो छोटी सी बात उन्हे खुश भी कर सकती है। उनका ...

अति प्रेम की भी बुरी।

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“कैसी चाहत है हमारी, जिसे चाहते हैं; उसे धीरे-धीरे नष्ट करते हैं।” - रामकुमार तिवारी कहते हैं अति हर चीज की बुरी होती है। परिजन अति प्रेम में अपने बच्चे का विकास अवरूद्ध कर देते हैं, एक तरफा प्रेमी ना सुनने के बाद तेजाब फेंक लड़की के उसी चेहरे को बिगाड़ देता है जिस पर वह इतना मोहित था, जलकुंभी जिस जल में पनपती है उसी के पोषण तत्वों को खत्म कर खुद का अस्तित्व ही संकट में डाल लेती है। प्रेम अच्छा है लेकिन अति उसकी भी बुरी है। हम इस विभाजन रेखा को कब लांघ जाते हैं, पता ही नहीं चलता। यह समझ ही नहीं पाते कि कब हम प्रेम करते - करते प्रेम का ही गला घोंटने लगते हैं। प्रेम का अर्थ स्वतंत्रता देना है, बंधन डालना नहीं। प्रेम बांधता नहीं, विकास के मार्ग खोलता है। प्रेम का अर्थ यह नहीं कि प्रेमी तुम्हारे ही साथ हमेशा समय बिताए, तुम्ही को अपने जीवन का केंद्रबिंदु बना कर रखे। उसके जीवन में परिवार और दोस्त होते हैं, पढ़ना या जॉब करना भी होता हैं। इन सबके लिए भी समय निकलना होता है। इसके अतिरिक्त खुद के लिए भी समय देना होता है। एकांत हर व्यक्ति का मूल अधिकार है। एकांत ही वह समय है वह व्यक्ति खुद से साक्...

अपने लिए वकील, दूसरों के लिए जज

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कहा जाता है कि हर व्यक्ति खुद के लिए वकील और दूसरों के लिए जज होता है। हम अपने गलत को गलत नहीं कहते, बल्कि उसे सही ठहराने के प्रयास में कहते हैं कि तुम्हे मेरा गलत तो दिख गया और जो सामने वाला कर रहा है उसका क्या? अगर सामने वाला गलत कर रहा है तो हम उसी की भाषा में जवाब देकर कैसे सही कर रहे हैं? अगर वह गलत है तो तुम सही कैसे हुए? कभी पूछना खुद से यह प्रश्न। एक महिला के दारू पीने या व्याभिचार करने पर जब सवाल उठाया जाता है तो वह बोलती है कि जब पुरुष पीते हैं तब तो कुछ नहीं बोलते और आज मैं करने लगी हूं तो मुझ पर सवाल उठाने लगे। जबकि उसको यह नहीं पता कि शराब और व्याभिचार दोनों गलत है, चाहे फिर किसी भी जेंडर का व्यक्ति करें। महिलाओं से साथ शोषण होता है, उसका विरोध करने की बजाय पावर में आते ही ये खुद पुरुषों का शोषण करने लगती हैं और अपने को जस्टिफाई करते हुए बोलते हैं कि हमारे साथ भी तो ऐसा हुआ था तब तो कुछ नहीं बोले। यह ठीक ऐसा ही है जैसा प्रेमचंद अपने एक उपन्यास में लिखते हैं शोषित भी पावर हाथ में आते ही शोषक बन जाता है। ब्याज पर कर्ज लेने वाला व्यक्ति जो ब्याज देने पर बहुत दुखी होता है और इ...

प्रेम और विवाह -

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लोग अक्सर प्रेम की पूर्णता शादी को मानते हैं। अब तक के लिटरेचर और मूवीज ने उनके दिमाग में यह बात घुसा दी है कि प्रेम तभी पूर्ण माना जाएगा जब शादी हो जाए, वरना प्रेम अधूरा है। इसलिए हर प्रेमिका अपने प्रेमी पर शादी का दवाब डालती है। कुछ लड़कियां प्रेम ही नहीं करतीं क्योंकि उन्हें लगता है जिससे प्रेम करेंगे उससे शादी होगी नहीं, क्योंकि घर वाले नहीं मानेंगे, इसलिए सीधा शादी करके पति से ही प्रेम कर लेंगे। जबकि प्रेम और शादी दोनों अलग अलग हैं। प्रेम में होना ही उसकी पूर्णता है। अगर तुम्हे किसी से प्रेम हो गया है तो प्रेम का होना ही उसकी पूर्णता है। अब उससे शादी हो या न हो, वह तुम्हे वापिस चाहे या न चाहे, इसका तो सवाल ही नहीं उठता। तुमने उसे प्रेम कर लिया, बस यही प्रेम है। इससे आगे की आवश्यकता नहीं। प्रेम में हम भक्त होते हैं और प्रेमी/प्रेमिका होता/होती है भगवान। वही हमारे लिए सर्वोपरि होता है। जबकि शादी में मामला हो जाता है स्वामी और सेवक का। प्रेमी अगर पति बन जाए तो वह स्वामी बन बैठता है। वह अधिकार देने की बजाय अधिकार जमाने लगता है। स्वतंत्रता देने की बजाय छीनने लगता है। दरअसल बात यह है कि...

जीवन एक वृत्त है।

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खुद को आधुनिक दिखाने के लिए व्यक्ति सबसे पहली अपनी मातृ बोली को छोड़ता है और मानक हिंदी में बातें करने लगता है। अगर थोड़ी इंग्लिश जानता है तो इंग्लिश के कुछ शब्द भी मानक हिंदी में मिला देता है। अब वह लोगों की नजर में शिक्षित हो गया है। गांव में शिक्षित होने की निशानी ही यही है कि तुम अपनी बोली को त्याग दो। देशी भाषा तुम्हे गंवार घोषित कर देती है। अगला कदम होता है देहाती संगीत को छोड़ना। वह वैश्विक गायकों को सुनने लगता है। अपनी भाषा, संगीत, और संस्कृति उसे असभ्य लगने लगती है। साहित्य भी फिर उसे भारत से बाहर का ही भाता है। अपने आप को वह वैश्विक दिखाने के चक्कर में वह अपनी जड़ों से दूर होता जाता है। लेकिन इतना आसान कहां होता है अपनी जड़ों से दूर जाना। बचपन में सीखा हुआ इतनी आसानी से नहीं भुलाया जा सकता है। जीवन एक वृत्त है। जहां से यात्रा शुरू होती है, वहीं पर खत्म होती है। आखिर में अपनी संस्कृति में ही लौटना पड़ता है। फिर से उसे अपना ही साहित्य अच्छा लगता है, अपनी भाषा सबसे प्यारी लगती है, देहाती संगीत पर ही वह थिरकता है। कहां जाओगे भागकर! जड़ से तना अलग नहीं हो सकता है। अलग होते ही सूख ...

दुख और सुख एक ही हैं।

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ज्ञानी व्यक्ति विरोधाभासी होता ही है। उसकी अगली बात पिछली को काटती चलती है। वह समझ जाता है कि विपरीत तो कुछ होता ही नहीं। सब एक ही है, अज्ञान के कारण विपरीत दिखाई देता है। या हम अपनी सीमित बुद्धि के कारण आसानी से समझने के लिए विपरीत रच लेते हैं। जन्म लेते ही मृत्यु तय हो जाती है। अज्ञानी को ये दोनों अलग दिखाई देते हैं, ज्ञानी को एक ही। रात ही आगे जाकर दिन बन जाती है, दिन ही आगे जाकर रात।  सुख ही आगे जाकर दुख में बदल जाता है, दुख ही आगे जाकर सुख बन जाता है। बन ही जाना है। यही नियति है। अगर सुख की चाहत रखते हो तो दुख को भी झेलना पड़ेगा। देखा जाए तो दुख के कारण ही सुख का अस्तित्व है। अगर ऐसी दुनिया हो जहां कोई दुख नहीं तो वहां सुख का कोई महत्व नहीं। क्योंकि तुलना किससे करोगे? स्वास्थ्य का तभी तक महत्व है जब तक बीमारी है। साधु तभी तक पूजा जाएगा जब तक दुनिया में बुरे लोग हैं। ज्ञानी वही जो सबको एक समझे। जिसके लिए अच्छे - बुरे का भेद ही मिट जाए। जो भी सामने आए वह उसी को स्वीकार कर ले। जो फांसी के फंदे और माला में अंतर न समझे। मंसूर को जब फांसी दी गई..तो उसने बड़े प्यारे शब्द कहे; - "कि ...

पंचम की यात्रा

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पंचम की यात्रा -  सुना है कि पाप धोने के लिए लोग दियागराज जा रहे हैं। तो हम जैसे पापी भी चल दिए अपने कुछ साथियों के साथ। जिन ट्रेन्स से जा रहे हैं उनमें इतनी भीड़ है कि कन्फर्म टिकट वाले चढ़ नहीं पा रहे हैं, जो पहले चढ़ गए, उन्होंने अंदर से गेट लगा लिए हैं ताकि कोई और न चढ़ पाए। बाहर से लोग खिड़की तोड़ रहे हैं, गेट तोड़ रहे हैं, लंबा सा डंडा लेकर अंदर वालों को मार रहे हैं ताकि गेट खुल जाए। लेकिन गेट खुलेगा नहीं। अंदर वालों की भी स्थिति कुछ खास अच्छी नहीं है। बाथरूम में भी लोग घुसे हुए हैं। कोई अगर बाथरूम जाना चाहे तो भीड़ की वजह से वहां तक नहीं पहुंच पाएगा, इसलिए कुछ लोग जहां हैं वहीं हग और मूत दे रहे हैं। फिर अपने ही हगे के पास खड़े होकर यात्रा कर रहे हैं। यात्रा मंगलमय की जगह दुर्गन्धमय हो गई है। गाड़ी से जाने वाले जाम में फंसे हुए हैं कई - कई घंटों तक। जहाज से जाने वाले कई गुना महंगा टिकट खरीद रहे हैं। दियाग क्षेत्र में जाकर बहुत पैदल चलना पड़ रहा है। सबको पंचम ही जाना है, बाकी घाट पर नहाने से कम पुण्य मिलता है। ज्यादा पुण्य लेने के लिए सीधे पंचम में नहाना पड़ेगा। जाते वक्त रास्...

व्याभिचार

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व्याभिचार हमेशा से रहा है और आगे भी रहेगा। समाज ने व्यक्ति को नियमों से बांधा है, मन को नहीं। मन किसी बंधन को नहीं मानता है, इसलिए वह अनेक विकल्प तलाशता है। मन की सुनने वाले उस दिशा में निकल जाते हैं। कुछ साहसी होते हैं वे व्याभिचार कर गुजरते हैं; उनमें से कुछ ही पकड़े जाते हैं, बाकी का छुपा रहता है। कुछ कम साहसी होते हैं, वे सिर्फ सोचते रह जाते हैं। करना उनको भी है सिर्फ मौका नहीं मिल रहा है या मौका मिलता भी है तो हिम्मत साथ नहीं देती है। समाज के नियम और उसकी कंडीशनिंग सामने आ जाती है। ------------------------------------------ हरिशंकर परसाईं एक जगह लिखते हैं कि “कितने लोग हैं जो ‘चरित्रहीन’ होने की इच्छा मन में पाले रहते हैं, मगर हो नहीं सकते और निरे ‘चरित्रवान’ होकर मर जाते हैं. इनकी आत्मा को परलोक में भी चैन नहीं मिलता होगा किसी स्त्री और पुरुष के संबंध में जो बात अखरती है, वह अनैतिकता नहीं है, बल्कि यह है कि हाय उसकी जगह हम नहीं हुए. एक स्त्री के पिता के पास हितकारी लोग जाकर सलाह देते हैं-उस आदमी को घर में मत आने दिया करिए. वह चरित्रहीन है. वे बेचारे वास्तव में शिकायत करते हैं कि...

कुणाल कामरा ने किया अब तक इतनी समस्याओं का सामना...!

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कुणाल कामरा, जो अपने राजनीतिक व्यंग्य और स्टैंड-अप कॉमेडी के लिए मशहूर हैं, को कई विवादों और समस्याओं का सामना करना पड़ा है। उनकी कॉमेडी का मुख्य फोकस सामाजिक और राजनीतिक मुद्दों पर होता है, जिसके कारण उन्हें कई बार आलोचना और प्रतिबंधों का सामना करना पड़ा। कुछ प्रमुख घटनाएँ इस प्रकार हैं: 1. एयरलाइन बैन (2020) कुणाल कामरा ने एक फ्लाइट में पत्रकार अर्नब गोस्वामी को ट्रोल किया था, जिसका वीडियो वायरल हुआ। इस घटना के बाद इंडिगो, एयर इंडिया, स्पाइसजेट और गोएयर जैसी एयरलाइनों ने उन पर अस्थायी प्रतिबंध लगा दिया था। 2. सुप्रीम कोर्ट की अवमानना (2020) उन्होंने भारत के सुप्रीम कोर्ट पर कुछ ट्वीट किए थे, जिसमें उन्होंने न्यायपालिका की निष्पक्षता पर सवाल उठाया था। इसके बाद उनके खिलाफ अवमानना का मामला दर्ज हुआ। हालांकि, सुप्रीम कोर्ट ने बाद में इस मामले को ज्यादा तूल नहीं दिया। 3. शोज़ के कैंसलेशन और प्रतिबंध कई बार उनके स्टैंड-अप शोज़ को स्थानीय प्रशासन या आयोजकों द्वारा कैंसल कर दिया गया, खासकर महाराष्ट्र, गुजरात और उत्तर प्रदेश में। उदाहरण के लिए, बेंगलुरु में उनका एक शो पुलिस के दबाव के कारण रद...

यदि कालिदास को शासकीय संरक्षण नहीं मिला होता तो वे महान कवि बन पाते या नहीं?

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यह कहना कठिन है कि यदि कालिदास को शासकीय संरक्षण नहीं मिला होता तो वे महान कवि बन पाते या नहीं। लेकिन हम इस पर कुछ दृष्टिकोणों से विचार कर सकते हैं— 1. शासकीय संरक्षण का प्रभाव: कालिदास उज्जयिनी के राजा विक्रमादित्य के नवरत्नों में से एक थे। शासकीय संरक्षण के कारण उन्हें एक स्थिर वातावरण, साधन और प्रेरणा मिली, जिससे वे अपनी रचनात्मकता को पूरी तरह विकसित कर सके। उनके ग्रंथों में जो भव्यता, प्रकृति का सूक्ष्म वर्णन, और गहन काव्य सौंदर्य दिखाई देता है, वह संभवतः इस संरक्षण के कारण ही था। 2. उनकी प्रतिभा और मौलिकता: कालिदास केवल संरक्षण के कारण महान नहीं बने, बल्कि उनकी प्रतिभा विलक्षण थी। उनकी भाषा, उपमाएँ, और कथानक-रचना में जो मौलिकता है, वह किसी भी प्रकार की बाहरी सहायता के बिना भी प्रकट हो सकती थी। यदि उन्हें शासकीय संरक्षण नहीं मिला होता, तो भी उनकी प्रतिभा उन्हें किसी न किसी रूप में आगे बढ़ाती। 3. कठिनाइयों का प्रभाव: संरक्षण के बिना उन्हें आर्थिक और सामाजिक संघर्षों का सामना करना पड़ता। संभव है कि इन कठिनाइयों से उनकी रचनात्मकता प्रभावित होती, या वे उतनी रचनाएँ न लिख पाते। हालाँकि, ...

औरंगजेब के हिन्दू विरोधी कार्य

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औरंगजेब के शासनकाल (1658-1707) में कई नीतियाँ और कार्य ऐसे थे, जिन्हें हिंदू विरोधी माना जाता है। हालाँकि कुछ लोग इन्हें राजनीतिक और प्रशासनिक कदम मानते हैं, फिर भी ये कार्य हिंदू समाज को प्रत्यक्ष रूप से प्रभावित करते थे। मुख्य हिंदू विरोधी कार्य निम्नलिखित थे— 1. जज़िया कर पुनः लागू करना (1679) अकबर ने जज़िया कर (ग़ैर-मुस्लिमों पर लगने वाला कर) हटा दिया था, लेकिन औरंगजेब ने इसे 1679 में फिर से लागू कर दिया। यह हिंदू व्यापारियों और आम जनता पर एक अतिरिक्त आर्थिक बोझ था। 2. मंदिरों का विध्वंस औरंगजेब के शासनकाल में कई प्रसिद्ध हिंदू मंदिर तोड़े गए, जिनमें प्रमुख हैं— काशी विश्वनाथ मंदिर (बनारस) – इसे तोड़कर वहाँ ज्ञानवापी मस्जिद बनवाई गई। केशवदेव मंदिर (मथुरा) – इसे नष्ट कर उसके स्थान पर ईदगाह बनवाई गई। सोमनाथ मंदिर (गुजरात) – इसे भी निशाना बनाया गया। राजस्थान और अन्य राज्यों में भी कई मंदिरों को ध्वस्त किया गया। 3. हिंदू उत्सवों और परंपराओं पर रोक दीवाली, होली, दशहरा जैसे हिंदू त्योहारों को मनाने पर प्रतिबंध लगा दिया गया। संगीत, नृत्य और अन्य सांस्कृतिक गतिविधियों को भी प्रतिबंधित किया...